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१२ . श्रावकप्रज्ञप्तिः
[१७दुविहं चरित्तमोहं कसाय तह नोकसायवेयणियं ।
सोलस-नवमेयं पुण जहासंखं मुणेयव्वं ॥१६॥ द्विविधं द्विप्रकारम् । चारित्रमोहनीयं प्राङ्निरूपितशब्दार्थम् । कषायवेदनीयं तथा नोकषाय. वेदनीयं चेति । वेदनीयशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । तत्र क्रोधादिकषायरूपेण यद्वद्यते तत्कषायवेदनीयम् । तथा स्त्रीवेदादिनोकषायरूपेण यद्वेद्यते तन्नोकषायवेदनीयम् । अस्यैव भेदानाह-षोडशनवभेदं पुनर्यथासङ्खयेन मुणितव्यं षोडशभेदं कषायवेदनीयं नवभेदं नोकषायवेदनीयम् । भेदाननन्तरं वक्ष्यत्येवेति ॥१६॥ तत्र कषायभेदानाह
अण अप्पच्चक्खाणा पच्चक्खाणावरणा य संजलणा।
कोहमणमायलोहा पत्तेयं चउवियप्पत्ति ॥१७॥ अण इति सूचनात्सूत्रम् इति कृत्वा अनन्तानुबन्धिनो गृह्यन्ते, इह पारंपर्येणानन्तं भवमनुबर्बु शीलं येषामिति अनन्तानुबन्धिनः उदयस्थाः सम्यक्त्वविघातिन इति कृत्वा। अविद्यमानप्रत्याख्याना अप्रत्याख्याना, देशप्रत्याख्यानं सर्वप्रत्याख्यानं च नैषामुदये लभ्यते इत्यर्थः। प्रत्या. ख्यानमावृण्वन्ति मर्यादया ईषद्वेति प्रत्याख्यानावरणाः, आङ्मर्यादायामोषदर्थे वा-मर्यादायां अतिचारकी-सम्यक्त्वके मलिन होनेको सम्भावना है इससे तथा औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शनको मोहित करने के कारण भी उसे दर्शनमोहनीय कहा गया है ॥१५।।
आगे चारित्रमोहके दो भेदोंका निर्देश करते हुए उन दो भेदोंके अवान्तर भेदोंकी संख्याका निर्देश किया जाता है
चारित्रमोह दो प्रकारका है-कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय। इनके यथाक्रमसे सोलह और नो भेद जानना चाहिए ॥१६॥
अब पूर्वनिर्दिष्ट कषायवेदनीयके उन सोलह भेदोंका निर्देश किया जाता है
अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन इन चारोंमें प्रत्येक क्रोध, मान, माया और लोभके रूपमें चार-चार प्रकारके हैं।
विवेचन-जो विरतिरूप चारित्रको मोहित किया करता है उसका नाम चारित्रमोह है। वह कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीयके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें जिसका वेदन क्रोधादि कषायके रूपसे हआ करता है उसे कषायवेदनीय और जिसका वेदन स्त्रीवेदादि नोकषायके रूपसे हुआ करता है उसे नोकषायवेदनीय कहा जाता है। कषायके मूलमें चार भेद हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमें से प्रत्येक अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनके भेदसे चार-चार प्रकारका है । गाथामें जो 'अण' शब्द प्रयुक्त हुआ है वह अनन्तानुबन्धो अर्थका सूचक है । जिनके आश्रयसे जीवके अनन्तं भवोंकी परम्परा चला करती है उन्हें अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषाय कहा जाता है। जिनके उदित होनेपर जीवको देश प्रत्याख्यान और सर्वप्रत्याख्यानका लाभ नहीं हो सकता है वे अप्रत्याख्यान क्रोधादि कहलाते हैं। प्रत्याख्यानावरणके अन्तर्गत 'आवरण' में जो आङ् उपसर्ग है उसका मर्यादा भी अर्थ होता है और ईषत् अर्थ भी होता है। जो प्रत्याख्यानका आवरण करते हैं-उसे प्रकट नहीं होने देते हैं उनका नाम प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि है। ये मर्यादामें महाव्रतस्वरूप सर्वविरतिको ही आच्छादित करते हैं, न कि देशविरतिको । ईषत् अर्थमें भी वे सर्वविरतिको ही अल्प मात्रामें आच्छादित किया करते हैं, देशविरतिको १. अ भेदाऽनंतरं। २. अलोभा।