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सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा रूपेण यद्वेद्यते तत्सातवेदनीयम् । परितापरूपेण यद्वद्यते तदसातवेदनीयम् । मुणितव्यं ज्ञातव्यमिति ॥१४॥
दुविहं च मोहणियं दंसणमोहं चरित्तमोहं च ।
दसणमोहं तिविहं सम्मेयरमीसवेयणियं ॥१५॥ ___ द्वे विधेऽस्य तद्विविधं द्विप्रकारम् । चः समुच्चये। मोहनीयं प्रानिरूपितशब्दार्थम् । द्वविध्यमेवाह-दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं च। तत्र दर्शनं सम्यग्दर्शनम्, तन्मोहयतीति दर्शनमोहनीयम् । चारित्रं विरतिरूपम्, तन्मोहयतीति चारित्रमोहनीयम् । तत्र दर्शनमोहनीयं त्रिविधं त्रिप्रकारं सम्यक्त्वेतर-मिश्रवेदनीयम् । सम्यक्त्वरूपेण वेद्यते यत्तत्सम्यक्त्ववेदनीयम् । इतरग्रहणान्मिथ्यात्वरूपेण वेद्यते यत्तन्मिथ्यात्ववेदनीयम् । मिश्रग्रहणात्सम्यग्मिथ्यात्वरूपेण वेद्यते यत्तत्सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदनीयम् । एवमयं वेदनीयशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते। इदं च बन्धं प्रत्येकविधमेव सत्कर्मतया त्रिविधमिति । आह-सम्यक्त्ववेदनीयं कथं दर्शनमोहनीयम् ? न हि तद्दर्शनं मोहयति, तस्यैव दर्शनत्वात् । उच्यते-मिथ्यात्वप्रकृतित्वादतिचारसंभवादौपशमिकादिमोहनाच्च दर्शनमोहनीयमिति ॥१५॥ सम्बद्ध आत्मसंवेदनमें 'मैं रूपके देखने में समर्थ हूँ' इस प्रकारको सम्भावनाका जो कारण है उसे चक्षुदर्शन कहा जाता है। इसी प्रकार चक्षुसे भिन्न अन्य चार इन्द्रियों और मनके आश्रयसे होनेवाले ज्ञानके उत्पादक प्रयत्नसे सम्बद्ध आत्मसंवेदनका नाम अचक्षुदर्शन है। अवधिज्ञानके उत्पादक प्रयत्नसे सम्बद्ध आत्मसंवेदनको अवधिदर्शन कहते हैं। तीनों कालोंसे सम्बद्ध अनन्त पर्यायोंके साथ जो आत्मस्वरूपका संवेदन होता है वह केवलदर्शन कहलाता है (पु. १०, पृ. ३१९) गाथामें जिन वेदनीयके दो भेदोंका निर्देश किया गया है उनमें जिसका वेदन सुखस्वरूपसे होता है या जो सुखका वेदन कराता है उसे सातावेदनीय कहते हैं। इसी प्रकार जिसका वेदन दुखस्वरूपसे होता है या जो दुखका वेदन कराता है उसे असातावेदनीय जानना चाहिए ॥१४॥
आगे मोहनीय कर्मके मूल दो भेदोंका उल्लेख करते हुए उनमें दर्शन मोहनीयके तोन भेदोंका निर्देश किया जाता है
दर्शनमोह और चारित्रमोहके भेदसे मोहनीय दो प्रकारका है। इनमें दर्शनमोह तीन प्रकारका है-सम्यक्त्व, इतर ( मिथ्यात्व ) और मिश्र ( सम्यक्त्व-मिथ्यात्व ) वेदनीय ।
विवेचन - 'दर्शन' से यहाँ सम्यग्दर्शन अभिप्रेत है। तत्वार्थश्रद्धानरूप उस सम्यग्दर्शनको जो मोहित किया करता है उसका नाम दर्शनमोह है । वह दर्शनमोह तीन प्रकारका है-सम्यक्त्ववेदनीय, मिथ्यात्ववेदनीय और मिश्रवेदनीय । जिसका वेदन ( अनुभवन ) सम्यक्त्व रूपसे हुआ करता है उसे सम्यक्त्ववेदनीय कहते हैं। इसके विपरीत जिसका वेदन मिथ्यात्व-अतत्त्वश्रद्धान-के रूप में हुआ करता है उसका नाम मिथ्यात्ववेदनीय है। जिसका वेदन मिश्र रूपसे- सम्यक्त्व व मिथ्यात्व उभय रूपसे हुआ करता है उसे मिश्र ( सम्यक्त्व-मिथ्यात्व) वेदनीय कहा जाता है । यह दर्शनमोहनीय बन्धको अपेक्षा तो एक ही प्रकारका है, पर सत्कर्मको अपेक्षा वह पर्वोक्त रूपमें तीन प्रकारका है। यहां यह शंका उपस्थित होती है कि सम्यक्त्ववेदनीय स्वयं सम्यक्त्वरूप होनेसे जब दर्शनको मोहित नहीं करती है तब उसे दर्शनमोहनीय कैसे कहा जा सकता है ? इसके उत्तरमें कहा जाता है कि मिथ्यात्व प्रकृति होनेसे चूंकि उसके आश्रयसे
१. अ अतोऽग्रेऽग्रिम 'चारित्रमोहनीयं' पदपर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति ।