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प्रस्तावना
(३-१८) 'उच्चालयम्मि पाए' इत्यादि गाथा के साथ 'न य तस्स तन्निमित्तो' इत्यादि दूसरी गाथा भी उद्धृत की गयी है। ये दोनों गाथाएँ प्रकृत श्रा. प्र. में २२३-२४ गाथांकों में उपलब्ध होती हैं।
(२०) श्रावकप्रज्ञप्ति और स्थानांगवृत्ति
अभयदेवसूरि (१२वीं शती) विरचित स्थानांग की वृत्ति (२, २, २९, पृ. ५५) में श्रा. प्र. की 'जेसिमवड्ढो पुग्गल' इत्यादि गाथा (७२) को उद्धृत किया है।
__ इसके अतिरिक्त उन्होंने पंचाशक की अपनी वृत्ति में भी श्र.प्र. की 'संपत्तदंसणाई' इत्यादि गाथा (२) को 'पूज्यैरेवोक्तम्' इस आदरसूचक वाक्य के साथ उद्धृत किया है। (२१) श्रावकप्रज्ञप्ति और योगशास्त्रविवरण
__ आचार्य हेमचन्द्र द्वारा विरचित (१२-१३वीं शती) योगशास्त्र के ऊपर उनके द्वारा स्वयं टीका की गयी है जो स्वो. विवरण के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें सम्यग्दर्शन के प्रसंग में (२-१५, पृ. १८२-८३) उपशमसंवेग आदि से सम्बद्ध जिन पाँच गाथाओं को उद्धृत किया गया है वे प्रस्तुत श्रा. प्र. में ५५-५९ गाथांकों में उपलब्ध होती हैं, जो सम्भवतः वहीं से उद्धृत की गयी हैं। इसी प्रकार श्रा. प्र. की ३४८-४९ ये दो गाथाएँ भी वहाँ (३-१२०, पृ. २०५) उद्धृत की गयी हैं। (२२) श्रावकप्रज्ञप्ति और आवश्यकसूत्र की मलयगिरि-वृत्ति
आवश्यकसूत्रगत नियुक्तियों की विस्तृत व्याख्या मलयगिरि (१२-१३वीं शती) सूरि के द्वारा अपनी वृत्ति में की गयी है। वहाँ (नि. १०७, पृ. ११३-१४) पर श्रा. प्र. की क्रम से ३५-४१ गाथाओं को उद्धृत किया गया है। इसी सिलसिले में ३९०-९१ गाथाओं को भी उद्धृत किया गया है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ये दोनों गाथाएँ विशेषावश्यकभाष्य में १२१६ व १२२० गाथांकों में उपलब्ध होती हैं।
उक्त मलयगिरि सूरि ने 'जेसिमवड्ढो पुग्गल' इत्यादि श्रा. प्र. की गाथा (७२) को अपनी पंचसंग्रह की वृत्ति (२-१३, पृ. ५४) में भी उद्धृत किया है। (२३) श्रावकप्रज्ञप्ति और सागारधर्मामृत
सागारधर्मामृत यह पं. आशाधर (१३वीं शती) विरचित एक विस्तृत श्रावकाचारविषयक ग्रन्थ है। इसकी रचना में पं. आशाधर ने अपने पूर्ववर्ती प्रायः सभी श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थों का-जैसे आ. समन्तभद्र-विरचित रत्नकरण्डक, प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति, अमृतचन्द्रसूरिविरचित पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, सोमदेव सूरिविरचित उपासकाध्ययन, आ. वसुनन्दी विरचित श्रावकाचार और हेमचन्द्र सूरिविरचित योगशास्त्र इत्यादि का उपयोग किया है। यह ग्रन्थ आठ अध्यायों में विभक्त है।
पं: आशाधर ने सम्पूर्ण गृहस्थ धर्म का एक श्लोक (१-१२) में निर्देश करते हुए कहा है कि निर्मल सम्यक्त्व; निर्मल अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत तथा मरणसमय में सल्लेखना; यह सम्पूर्ण गृहस्थ धर्म है। पं. आशाधर ने उपलब्ध समस्त श्रावकाचारों का परिशीलन करके प्रकृत सागारधर्मामृत की रचना में अपनी स्वतन्त्र बुद्धि का भी कुछ उपयोग किया है। उदाहरणार्थ उन्होंने श्रावक के पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक ये जो तीन भेद निर्दिष्ट किये हैं (१-२०) वे इस प्रकार से सम्भवतः दूसरे ग्रन्थ में नहीं मिलेंगे।
१. देखिए अनेकान्त वर्ष २, किरण ३-४ में प्रकाशित 'सागारधर्मामृत पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव' शीर्षक लेख।