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श्रावकप्रज्ञप्तिः
एवंठिइयस्स य इमस्स कम्मस्स अहपवत्तकरणेण जया घंसण- घोलणाए कहवि एगं सागरोवमकोडाकोडिं मोत्तूण सेसाओ खवियाओ हवंति तीसे वि य णं थोवमित्ते खविए तया घणराय-दोसपरिणाम.... कम्मगंठो हवइ । (स. क., पृ. ४४ )
५. श्री. प्र. गा. ३२ की टीका में प्रसंगवश जिस प्रकार 'गंठि त्ति सुदुब्भेओ' आदि विशेषावश्यक भाष्य की गा. ११९५ उद्धृत की गयी है उसी प्रकार वह स. क. (पृ. ४४ ) में भी उद्धृत की गयी है । ६. इसके अतिरिक्त जैसा कि ऊपर निर्देश किया जा चुका है कि स. क. में प्रसंगानुसार जिन अनेकों गाथाओं को उद्धृत किया गया है वे प्रस्तुत श्रा. प्र. में उसी प्रकार से उपलब्ध होती हैं। जैसे- श्रा. प्र. ५४-६० और स. क. ७५-८१ (पृ. ४५-४६) ।
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(१७) श्रावकप्रज्ञप्ति और पंचवस्तुक
हरिभद्रसूरि द्वारा विरचित इस पंचवस्तुक ग्रन्थ में समस्त गाथाएँ १७१४ हैं । इसके पाँच अधिकारों में प्रव्रज्याविधि, दैनिक अनुष्ठान, व्रतविषयक प्रस्पापना, अनुयोगगणानुज्ञा और संलेखना इन पाँच वस्तुओं की प्ररूपणा की गयी है, इसीलिए पंचवस्तुक यह उसका सार्थक नाम है । श्रा. प्र. के अन्तर्गत ३५६-५९ ये चार गाथाएँ उक्त पंचवस्तुक में १५३-५९ गाथांकों में उपलब्ध होती हैं ।
'जइ जिणमयं पवज्जइ' इत्यादि गाथा पंचवस्तुक में १७१वीं गाथा के रूप में अवस्थित है। यह गाथा प्रस्तुत श्रा. प्र. की टीका (६१) में हरिभद्र के द्वारा उद्धृत की गया है। उक्त गाथा समयप्राभृत की अमृतचन्द्रसूरि द्वारा विरचित आत्मख्याति टीका ( १२ ) में भी पायी जाती है । वहाँ उसका उत्तरार्ध कुछ भिन्न है ।
(१८) श्रावकप्रज्ञप्ति और धर्मबिन्दु
हरिभद्रसूरिविरचित यह धर्मबिन्दु प्रकरण एक सूत्रात्मक ग्रन्थ है, जो संस्कृत में लिखा गया है। वह आठ अध्यायों में विभक्त है । गद्यात्मक समस्त सूत्रों की संख्या उसकी ५४२ है । प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ और अन्त में ३-३ अनुष्टुप् श्लोक भी हैं, जिनकी संख्या ४८ है । इसके तीसरे अध्याय में अणुव्रतादिरूप विशेष गृहस्थधर्म की जो प्ररूपणा की गयी है वह प्रायः श्रा. प्र. के ही समान है । जैसे
जिस प्रकार धर्मबिन्दु में अणुव्रतादि द्वादशात्मक गृहस्थधर्म में दिव्रत, भोगोपभोगप्रमाण और अर्थदण्डव्रत इन तीन को गुणव्रत (३-१७) तथा सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास और अतिथिसंविभागव्रत इन चार को शिक्षापद (३-१८) निर्दिष्ट किया गया है उसी प्रकार श्रा. प्र. में भी उक्त दिव्रतादि तीन को गुणव्रत ( २८०, २८४ व २८९) तथा उक्त सामायिक आदि चार को शिक्षापद (२९२, ३१८, ३२१ व ३२९-२६) कहा गया है। इनके स्वरूप और अतिचारों आदि का निरूपण भी दोनों ग्रन्थों में समान रूप में पाया जाता है, जबकि तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (७-१६) में इनका उल्लेख गुणव्रत और शिक्षापद के नाम से नहीं किया गया तथा क्रम में भी वहाँ कुछ भिन्नता है। इसके अतिरिक्त धर्मबिन्दु में श्रावक के लिए नमस्कारमन्त्र के उच्चारणपूर्वक जागने (३-४३), विधिपूर्वक चैत्यवन्दन (३-४४), चैत्य - साधुवन्दन ( ३-५०), गुरु के समीप में प्रत्याख्यान के प्रकट करने और जिनवाणी के सुनने (३-५२) आदि का जिस प्रकार विधान किया गया है उसी प्रकार श्री. प्रज्ञप्ति में भी कुछ आगे-पीछे इन सबका विधान किया गया है ( ३३९-५२) । (१९) श्रावकप्रज्ञप्ति और प्रवचनसार की जयसेनवृत्ति
आ. कुन्दकुन्द विरचित प्रवचनसार के ऊपर आ. जयसेन (१२वीं शती) की एक वृत्ति है। इसमें