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________________ २२४ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३८२ - पुनरपि केषांचिन्मतमाशंक्यते केई भणति एसा संलेहणा मो दुवालसविहंमि । भणिया गिहत्थधम्मे न जओ तो संजए तीए ॥३८२।। केचनागीतार्था भणन्ति-एषा अनन्तरोदिता संलेखना। द्वादाविधे पंचाणुव्रतादिरूपे भणिता गृहस्थधर्मे श्रावकधर्म इत्यर्थः, न यतस्ततस्तस्मात्कारणात्संयतः प्रवजित एव तस्या. मिति ॥३८२॥ अत्रोच्यते न भणितेत्यसिद्धम् भणिया तयणंतरमो जीवंतस्सेस बारसविहो उ । एसा य चरमकाले इत्तरिया चेव ता ण पुढो ॥३८३।। भणिता तदनन्तरमेव द्वादशविधश्रावक नन्तरमेव तन्मध्य एवाभगने कारणमाहजोवत एष द्वादशविधः प्रदीर्घकालपरिपालनीयः। एषा संलेखना। चरमकाले क्षीणप्राये आयुषि सति क्रियते । इत्वरा चेयमल्पकालावस्थायिनी । यस्मादेवं तस्मान्न पृथगियं श्रावकधर्मादिति ॥३८३॥ उपपत्त्यन्तरमाह जं चाइयारसुत्तं समणोवासगपुरस्सरं भणियं । तम्हा न इमीइ जई परिणामा चेव अवि य गिही ॥३८४॥ यच्छ यस्माच्च । अतिचारसूत्रमस्याः। श्रमणोपासकपुरःसरं भणितमागमे। तच्चेदम्इमीए समणोवासएणं इमे पंचइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा । तं जहा। इहलोगासंसप्पहोता तो वह चीटियों आदिके उपद्रवको सहनेवाले चण्डकौशिक सर्प आदि तियं चोंके भी हो सकता था। परन्तु आगममें उनके वह चारित्रपरिणाम नहीं कहा गया। इससे यह निश्चित है कि चारित्रमोहनीयका अनुदय होनेपर जब कोई उक्त आरम्भ आदिसे निवृत्त होता है तभी उसके वह चारित्रपरिणाम होता है ।।३८१।। अब यहां आशंकाके रूपमें किन्हीं दूसरोंके अभिप्रायको प्रकट करते हैं आगमके रहस्यको न समझनेवाले कितने ही वादी यह कहते हैं कि इस संलेखनाको चूंकि बारह प्रकारके गृहस्थधर्म में नहीं कहा गया है, इसीलिए उसमें संयतको अधिकृत समझना चाहिए, अर्थात् उसका आराधक संयत होता है, न कि गृहस्थ ॥३८२॥ आगे उस शंकाका समाधान किया वह संलेखना उस बारह प्रकारके गृहस्थधर्मके अनन्तर ही कही गयी है। उसके मध्यमें न कहनेका कारण यह है कि वह बारह प्रकारका गृहस्थधर्म जीवित रहते हुए गृहस्थके होता है व उसका परिपालन दीर्घकाल तक किया जाता है जबकि यह संलेखना अन्तिम समयमें-आयुके कुछ ही शेष रहनेपर-होती है वह आराधन उसका कुछ थोड़े समय किया जाता है, इसीलिए वह उस गृहस्थधर्मसे पृथक् नहीं-उसीके अन्तर्गत है, न कि मुनिधर्म के अन्तर्गत ।।२८३।। आगे उसके लिए दूसरी भी युक्ति दी जाती है इसके अतिरिक्त चूंकि उस सल्लेखनाके अतिचारों विषयक सूत्र ( 'इमोए समणोवासएणं । १. भ 'ए' इत्यतोऽग्रेऽग्रिम 'चेयमल्पका' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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