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________________ २२३ - ३८१ ] अपश्चिमसंलेखनाविधानम् काऊण विगिट्ठतवं जहासमाहीइ वियडणं दाउं । उज्जालियं अणुव्वय ति-चउद्धाहारवोसिरणं ॥३७९॥ कृत्वा विकृष्टतपः षष्ठाष्टमादि यथासमाधिना शुभपरिणामपातविरहेण । तथा विकटनामालोचनां दत्त्वा उज्ज्वाल्य पुनःप्रतिपत्त्या निर्मलतराणि कृत्वा । अणुव्रतानि प्रसिद्धानि । अणुव्रतग्रहणं गुणव्रताद्य पलक्षणमिति । त्रिविध चतुर्विधाहारव्युत्सर्जनमिति कदाचित्रिविधाहारपरित्यागं करोति, कदाचिच्चतुविधाहारमिति ॥३७९॥ अत्र प्रागुक्तमेव लेशतः सम्यगनवगच्छन्नाह चरमावत्थाएं तहा सन्यारंभकिरियानिवित्तीएं। पव्वज्जा चेव तओ न पवज्जई केण कज्जेण ॥३८॥ चरमावस्थायां मरणावस्थायामित्यर्थः। तथा तेन प्रकारेणाहारपरित्यागादिनापि सर्वारम्भक्रियानिवृत्तेः कारणात् । प्रवज्यामेवासौ श्रावको न प्रतिपद्यते । केन कार्येण केन हेतुना ॥३८०॥ इत्यत्रोच्यते चरणपरिणामविरहा नारंभादप्पवित्तिमित्तो सो। तज्जुत्तुवसग्गसहाण जं न भणिओ तिरिक्खाणं ॥३८१॥ चरणपरिणामविरहादित्युक्तमेव, स एव तथानिवृत्तस्य किं न भवतीत्याशङ्कयाहनारम्भाद्यप्रवृत्तिमात्रोऽसौ चरणपरिणाम इति । कुतः? तयुक्तोपसर्गसहानां यन्न भणितस्तिरश्चामिति । तथाहि-आरम्भाद्यप्रवृत्तियुक्तानामपि पिपीलिकाद्यपसर्गसहानां चण्डकौशिकादीनां न चारित्रपरिणामः । अतोऽयमन्य एवात्यन्तप्रशस्तोऽचिन्त्यचिन्तामणिकल्प इति ॥३८१॥ वह दो-तीन आदि उपवास रूप विकृष्ट तपको करता है, समाधिके अनुसार-चित्तकी एकाग्रतापूर्वक-विकरण ( आलोचना) देकर अणुव्रतोंको उज्ज्वल करता है व तीन अथवा चारों प्रकारके आहारका परित्याग करता है । अणुव्रतोंके ग्रहणसे यहां गुणवतों व शिक्षापदोंका भी ग्रहण कर लिया गया समझना चाहिए ॥३७९|| उक्त परिस्थितिमें शंकाकार कहता है इसके अतिरिक्त वह मरणके समय में समस्त आरम्भकार्य का परित्याग भी करता है। तब ऐसी स्थिति में वह दोक्षाको हो किस कारणसे स्वीकार नहीं करता है ? शंका कारका अभिप्राय यह है कि श्रावक जब इतना सब कुछ मुनिके समान हो करता है तब दीक्षा ग्रहण करके मुनिधर्मको ही स्वीकार कर लेना चाहिए ॥३८०॥ आगे इस शंकाका समाधान किया जाता है उक्त शंकाके उत्तरमें यहां यह कहा जा रहा है कि चारित्रका परिणाम न होने से श्रावक उपर्युक्त कठोर अनुष्ठानको करता हुआ भो दीक्षाको स्वीकार नहीं करता है। कारण इसका यह है कि आरम्भ आदिमें प्रवृत्त न होने मात्रको वह चारित्र परिणाम नहीं कहा जा सकता। यही कारण है जो आरम्भ आदिमें न प्रवृत्त रहकर उपसर्ग के सहनेवाले तियनोंके वह चारित्र परिणाम नहीं कहा गया। अभिप्राय यह है कि यदि आरम्भ आदिसे निवृत्त होना ही चारित्र १. मवत्याइ । २. अ णिवित्तीउ । ३. अ पव्वज्ज । ४.°दिति उक्तम्मेव । ५. अ इति कृतस्वद्युपसर्ग ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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