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-३७६] यात्राविधिः
२२१ ___ यद्यपि क्वचिच्छून्यादौ न वन्दनवेला स्तेन-श्वापदादिभयेषु चैत्यानि तथापि दृष्ट्वा अवलोकननिबन्धनमपि प्रणिधानं नमस्कारेणापि संघ इति संघविषयं कार्यमिति ॥३७३॥
तंमि य कए समाणे वंदावणगं निवेइयव्वं ति ।
तयभावंमि पमादी दोसो भणिओ जिणिदेहिं ॥३७४॥ तस्मिन्नपि एवंभूते प्रणिधाने कृते सति । वन्दनं निवेदयितव्यमेवे, वस्तुतः संपादितत्वात् । तदभावे तथाविधप्रणिधानाकरणें । प्रमादाद्धेतोर्दोषो भणितो जिनेन्द्रविभागायातशक्यकुशलाप्रवृत्तरिति ॥३७४॥ उपसंहरन्नाह
एयं सामायारिं नाऊण विहीइ जे पउंजंति ।
ते हुति इत्थ कुसला सेसा सव्वे अकुसला उ ॥३७॥ एतामनन्तरोदिताम् । सामाचारी व्यवस्थाम्। ज्ञात्वा विधिना ये प्रयुंजते, यथावद्ये कुर्वन्तीत्यर्थः। ते भवन्त्यत्र विहरणविधौ कुशलाः, शेषा अकुशला एवानिपुणा एव । न चेयमयुक्ता, संदिष्टवन्दनकथन-तीर्थस्नपनादिदर्शनादिति ॥३७५॥ श्रावकस्यैव विधिशेषमाह
अन्ने अभिग्गहा खलु निरईयारेण हुति कायव्वा ।
पडिमादओ वि य तहा विसेसकरणिज्जजोगाओ ॥३७६॥ अन्ये 'चाभिग्रहाः खलु अनेकरूपा लोचकृत-घृतप्रदानादयः। 'निरतिचारेण सम्यक् भवन्ति कर्तव्या आसेवनीया इति । प्रतिमादयोऽपि च तथा षोषकरणीययोगा इति-प्रतिमा दर्शनादिरूपा, यथोक्तम्-दसणवयेत्यादि । आदिशब्दादनित्यादिभावनापरिग्रह इति ॥३७६॥
यदि कहीं चोर आदिके भयसे वन्दनाके लिए समय नहीं है तो भी चैत्योंको देखकर नमस्कारके साथ संघके विषयमें प्रणिधान करना चाहिए-उस ओर नमस्कार करते हुए चित्तको एकाग्र करना चाहिए ।।३७३॥
इस वन्दनाका निवेदन भी करना चाहिए, अन्यथा दोषका भागी होता है, यह आगे निर्दिष्ट किया जाता है
उक्त प्रकार नमस्कार पूर्वक प्रणिधानके कर चुकनेपर वन्दना विषयक निवेदन करना चाहिए, क्योंकि ऐसा न करनेपर जिनेन्द्र के द्वारा प्रमाद जन्य दोष निर्दिष्ट किया गया है ॥३७४।।
अब इस प्रसंगका उपसंहार किया जाता है
इस सामाचारीको जानकर जो विधिपूर्वक उसका प्रयोग करते हैं वे उक्त विहारकी विधिमें कुशल (निपुण ) होते हैं, इसके विपरीत शेष सबको अकुशल समझना चाहिए ॥३७५।।
आगे श्रावकका अन्य करणीय कार्यको ओर भी ध्यान दिलाया जाता है
अन्य भी जो लोच व घृतप्रदान आदि अभिग्रह हैं उन्हें भी निरतिचार करना चाहिए। तथा विशेष करणीय कार्यसे सम्बद्ध होनेके कारण दर्शन व व्रत आदि ग्यारह प्रतिमाओं आदिका भी निर्दोष रीतिसे पालन करना चाहिए ॥३७६।।
४. अपमाया। ५. भ
१. अ 'संघ इति' नास्ति । २. अतमि वि कए समाणा। ३. अणवेदयन्वं । जिणंदेहि । ६. मनवेदयितव्यमेव । ७. अ शब्दादिनित्यत्वादिभावना।