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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[३७०तेसिं पणिहाणाओ इयरेसि पि य सुभाउ झाणाओ।
पुन्नं जिणेहिं भणियं नो संकमउ ति ते मेरा ॥३७०॥ तेषामाद्यानां वन्दननिवेदकानाम् । प्रणिधानात्तथाविधकुशलचित्तात् । इतरेषामपि च वन्द्यमानानाम् । शुभध्यानात्तच्छ्वणप्रवृत्त्या । पुण्यं जिनर्भणितं अर्हद्भिरुक्तम् । न च संक्रमत इति न निवेदकपुण्यं निवेद्यसंक्रमेण यतश्चैवमतो मर्यादेयमवश्यं कार्येति ॥३७०॥ विपर्यये दोषमाह
जे पुणऽकयपणिहाणा वंदित्ता नेव वा निवेयंति ।
पच्चक्खमुसाबाई पावा हु जिणेहिं ते भणिया ॥३७१॥ ये पुनरनाभोगादितो अकृतप्रणिधानाः। वन्दित्वा, नैव वा वन्दित्वा निवेदयन्ति असकस्थान देवान् वन्दिता यूमिति। प्रत्यक्षमृषावादिनोऽकृतनिवेदनात्। पापा एव जिनस्ते भणिता मृषावादित्वादेवेति ॥३७१॥
जे वि य कयंजलिउडा सद्धा-संवेगपुलइयसरीरा ।
बहु मन्नंति न सम्मं वंदणगं ते वि पाव त्ति ॥३७२॥ येऽपि च साध्वादयो निवेदिते सति कृताञ्जलिपुटाः श्रद्धासंवेगपुलकितशरीरा इति पूर्ववन्न बहु मन्यन्ते त सम्यक् वन्दनकं कुर्वन्ति । तेऽपि पापाः, गुणवति स्थानेऽवज्ञाकरणादिति ॥३७२॥ क्वचिद्वेलाभावेऽपि विधिमाह
जइ वि न वंदणवेला तेणाइभएण चेइए तहवि । दट्टणं पणिहाणं नवकारेणावि संघमि ॥३७३॥
वन्दनाके उन निवेदकोंको तो वन्दना विषयक चित्तकी एकाग्रतासे तथा दूसरोंको-उनके निवेदनसे उक्त वन्दनामें उपयोग लगानेवालोंको-उस वन्दनाविषयक उत्तम ध्यानसे पुण्यका लाभ होता है, ऐसा जिनेन्द्र के द्वारा कहा गया है। परन्तु एकका पुण्य दूसरेमें संक्रान्त नहीं होता है-निवेदकका पुण्य निवेद्यकोंको नहीं प्राप्त हो सकता है, इसलिए उक्त मर्यादाका पालन अवश्य करना चाहिए ॥३७०॥
आगे इसके विपरीत आचरण करनेपर होनेवाले दोषको दिखलाते हैं
परन्तु जो चित्तकी एकाग्रताके विना वन्दना करके अथवा नहीं भी करके 'अमुक स्थानमें तुम्हें देवोंकी वन्दना करायी गयी है' ऐसा निवेदन करते हैं उन्हें जिन भगवान्ने प्रत्यक्षमें असत्य. भाषो और पापो कहा है ॥३७१।।
___आगे निवेद्यमान भी यदि वन्दनाका बहुमान नहीं करते हैं तो वे भी पापी हैं, यह निर्देश किया जाता है
उपर्युक्त निवेदन करनेपर जो साधु-साध्वी आदि हाथ जोड़कर श्रद्धा और संवेगसे रोमांचित शरीरसे युक्त होते हुए उस वन्दनाके प्रति भलीभांति आदर व्यक्त नहीं करते हैं वे भी पापी होते हैं ॥३७२॥
समय न रहनेपर क्या करना चाहिए, इसे आगे व्यक्त किया जाता है१. भ खु । २. अ गुणवस्थाने वज्ञाकरणा (अतोऽग्नेऽग्निमगाथागत 'नवकारेणा' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति)।