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श्रावकप्रज्ञप्तिः
न चायं हेतुरसिद्ध इति परिहरति
भणियं च कूवनायं दव्वंत्थवगोयरं इहं सुत्ते ।
निययारंभवपवत्ता जं च गिही तेण कायव्वा ॥ ३४७॥
[ ३४७ -
भणितं च प्रतिपादितं च । कूपज्ञातं कूपोदाहरणम् । कि विषयमित्याह - द्रव्यस्तवगोचरं द्रव्यस्तवविषयम् । इह सूत्रे जिनागमे । दव्वत्थए कूवदिट्ठतो इति वचनात् । तृडपनोदार्थं कूप खननेऽधिकतर पिपासाश्रमादिसंभवेऽप्युद्भवति तत एव काचिच्छिरा यदुदकाच्छेष कालमपि तृडाद्यपगम इति, एवं द्रव्यस्तवप्रवृत्तौ सत्यपि पृथिव्याद्युपमर्दे पूज्यत्वाद्भगवत उपायत्वात्पूजाकरणस्य श्रद्धावतः समुपजायते तथाविधः शुभः परिणामो यतोऽशेषकर्मक्षपण सपीति । उपपत्त्यन्तरमाह - नियंतारम्भप्रवृत्ता यच्च गृहिण इत्यनवरतमेव प्रायस्तेषु परलोकप्रतिकूलेवारम्भेषु प्रवृत्तिदर्शनात् । तेन कर्तव्या पूजा, कायवधेऽपि उक्तवदुपकारसम्भवाद् तावन्तों वेलामधिकतराधिकरणाभावादिति ॥३४७॥
अर्थात् हे वासुपूज्य जिनेन्द्र ! जिस कारण आप राग-द्वेषसे रहित हो चुके हैं, इसलिए आपको अपनी पूजा से कुछ भी प्रयोजन नहीं रहा — उससे प्रसन्न होकर आप पूजकका कुछ भला नहीं कर सकते । इसके अतिरिक्त आपने चूंकि वैरभावका वमन कर दिया - उसे नष्ट कर दिया है, इसलिये यदि आपकी कोई निन्दा करता है तो उससे भी आपको कुछ प्रयोजन नहीं रहा, क्योंकि द्वेषबुद्धिसे रहित हो जानेके कारण आप रुष्ट होकर निन्दकका कुछ अनिष्ट करनेवाले भी नहीं हैं । इस वस्तुस्थितिके होते हुए भी पूजा में आपके पवित्र गुणोंके स्मरणसे पूजकके परिणामोंमे जो निर्मलता होती है वह उसे पापकर्मोंकी कालिमासे बचाती है— उससे उसका उद्धार करती है । यह सच है कि पूज्य जिनदेवको पूजा करनेवाले जनके पूजा करते हुए कुछ थोड़ा सा पाप अवश्य होता है, पर वह उस पूजासे संचित उसके पुण्यको महती राशि में दोषजनक इस प्रकार नहीं है जिस प्रकार कि शीतल व कल्याणकर जलसे परिपूर्ण समुद्रकी जलराशिमें डाला गया विषका कण दोषजनक नहीं है— उसे दूषित ( विषैला ) नहीं करता ||३४५ - ३४६॥
पूजाको जो परिणाम विशुद्धिका हेतु कहा गया है उसका आगे समर्थन किया जाता हैयहाँ परमागममें द्रव्यस्तवके विषय में कुएँका उदाहरण कहा गया है। इसके अतिरिक्त गृहस्थ चूंकि निरन्तर आरम्भ में प्रवृत्त रहते हैं, इसलिए उन्हें पूजा करनी हो चाहिए ।
विवेचन-आगममें द्रव्यस्तव के विषय में जो कुएँका दृष्टान्त दिया गया है उसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार प्यासको शान्त करने के लिए जो कुआँ खोदा जाता है उसके खोदने में यद्यपि खोदनेवालोंको बहुत परिश्रम करना पड़ता है तथा उससे उत्पन्न प्यास आदिको वेदना भी सहनी पड़ती है, फिर भी उसमें कोई ऐसा पानीका स्रोत निकलता है जिसके आश्रयसे पीछे शीतल जलको पोकर जनसमुदाय बहुत समय तक अपनी प्यासको शान्त करता है। इसी प्रकार द्रव्यस्तव स्वरूपं जिनपूजा आदिके करते समय यद्यपि गृहस्थके द्वारा पृथिवीकायिक आदि कितने ही जीवोंको पीड़ा पहुँचता है, फिर भी उसके निमित्तसे श्रद्धालु गृहस्थके जो निर्मल परिणाम उत्पन्न होता है उससे वह समस्त कर्मोंका क्षय भी कर सकता है, फिर भला स्वर्ग आदिकी प्राप्तिकी तो बात ही क्या है ? वे तो अनायास ही प्राप्त हो सकते हैं । इसके अतिरिक्त गृहस्थ प्रायः निरन्तर परलोक के प्रतिकूल आरम्भ कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं, क्योंकि हिंसाजनक व्यापारादि कार्यों के विना उनका गृहस्थ जीवन बनता नहीं है । इस प्रकारसे जो उनके पापका बन्ध होता है उसके निराकरण के लिए उन्हें जिनपूजा आदि पुण्यवर्धक कार्योंका करना भी आवश्यक होता है ।