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श्रावकस्य दैनिककृत्यम्
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अत्राह
आह गुरू पूयाए कायवहो होइ जइ वि हु जिणाणं ।
तह वि तई कायव्वा परिणामविसुद्धि हेऊओ ॥३४६॥ आह गुरुरित्युक्तवानाचार्यः। पूजायां क्रियमाणायाम् । कायवधः पृथिव्याधुपमर्दो यद्यपि भवत्येव । जिनानां रागादिजेतृणामित्यनेन तस्याः सम्यग्विषयमाह। तथाप्यसौ पूजा कर्तव्यैव । कुतः ? परिणामविशुद्धिहेतुत्वादिति ॥३४६॥
अरहन्त व उनकी प्रतिमा आदि पूज्य माने जाते हैं उनका उस पूजासे कोई उपकार होनेवाला नहीं है, इसीलिए उसे नहीं करना चाहिए। इस प्रकार इस प्रसंगमें शंका की जातो है ॥३४५।।
इस शंकाके समाधान में कहा जाता है
गुरु कहते हैं कि जिनोंको-अरहन्त व उनकी प्रतिमाओं आदिको-पूजा करते समय यद्यपि पृथिवीकायिक आदि जीवोंका वध होता है, तो भी परिणामोंको विशुद्धिको कारण होनेसे उसे करना ही चाहिए ॥३४६॥
विवेचन-यहां पूजाके प्रसंगमें यह आशंका की गयी है कि जिन व जिनप्रतिमाओं आदिकी पूजामें पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक व वनस्पतिकायिक इन स्थावर जीवोंके साथ कुछ द्वीन्द्रिय व त्रीन्द्रिय आदि क्षुद्र अस जीवोंका भी विघात होता है। उधर परमागममें 'अहिंसा परमो धर्मः' आदिके रूपमें समस्त प्राणियोंके संरक्षणका विधान किया गया है, ऐसी स्थितिमें उपयुक्त चैत्यपूजा आदिका विधान युक्ति और आगमसे संगत नहीं दिखता। इसके अतिरिक्त यदि यह भी विचार किया जाय कि उससे जिन पूज्य अरहन्त आदिकी पूजा की जाती है उनका कुछ उपकार होता हो सो भी सम्भव नहीं है, क्योंकि राग-द्वेषके विजेता अरहन्त तो कृतकृत्य हो चुके हैं, अतः उन्हें उस पूजासे कुछ प्रयोजन रहा नहीं है तथा पाषाणस्वरूप जिनप्रतिमायें अचेतन-जड़ होकर विवेकसे रहित हैं, इसलिए उन्हें भी उस पूजाके करने व न करनेसे कुछ हर्षविषाद होनेवाला नहीं है। इस कारण निरर्थक होनेसे श्रावकको उस पूजाका करना उचित नहीं है। इस प्रकार आगमके रहस्यसे अनभिज्ञ कुछ लोग कुशंका किया करते हैं। उनकी उक्त आशंकाके समाधान में यहां यह कहा गया है कि यह सत्य है कि पूजाके करने में कुछ प्राणियोंको कष्ट पहुंचता है, फिर भी उससे पूजकके परिणामोंमें जो विशुद्धि होती है उससे उसके पुण्यबन्ध होने के साथ पूर्वसंचित पापकर्मको स्थिति व अनुभागका ह्रास भी होता है । इसलिए आरम्भकायमें रत रहनेवाले गृहस्थको वह पूजा करना हो चाहिए। इस प्रसंगमें स्वामी समन्तभद्रने जो यह कहा है वह विशेष ध्यान देने योग्य है
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवेरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ।। पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशी। दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शोतशिवाम्बुराशौ ।।
-स्वयम्भूस्तोत्र ५७-५८
१. अ चोदक इत्यतात्र । २. भ .वहो जइ वि होइ उ जिणाणं । ३. अ 'तह' नास्ति । ४. अतती । ५. अ कायम्वो।