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श्रावकप्रज्ञप्तिः
उपादान को निरर्थक सिद्ध किया गया है। यह सब कथन भी उक्त सूत्रांग से प्रभावित है।
विशेष इतना है कि सूत्रकृतांग के टीकाकार शीलांकाचार्य ने प्रसंगप्राप्त उस सूत्र (२, ७, ७५) की व्याख्या में प्रकृतकथा को स्पष्ट करते हुए प्रथमतः यह कहा है कि किसी गृहपति के छह पुत्र थे। उन्होंने उस प्रकार के कर्म के उदय से पिता व पितामह के क्रम से चली आयी प्रचुर सम्पत्ति के होते हुए भी राजवंश के भाण्डागार में जाकर चोरी की। भवितव्यता के वश वे राजपुरुषों द्वारा पकड़ लिये गये।
उक्त टीकाकार आगे प्रकृत कथानक के विषय में मतान्तर को प्रकट करते हुए कहते हैं कि अन्य आचार्य प्रकृत कथानक का व्याख्यान इस रूप में करते हैं-रत्नपुर नगर में रत्नशेखर नाम का राजा था। उसने सन्तुष्ट होकर रत्नमाला पटरानी आदि समस्त अन्तःपुर को कौमुदी उत्सव मनाने के लिए इधर-उधर जाने-आने की अनुमति दे दी। - इसी प्रसंग में श्रा. प्र. की उक्त गाथा (११५) की टीका में जो कथा दी गयी है उसमें निर्दिष्ट नाम आदि उससे कुछ भिन्न हैं। वहाँ कहा गया है-वसन्तपुर नगर में जितशत्रु राजा व उसकी धारिणी नाम की पत्नी थी। किसी प्रकार से रानी के ऊपर सन्तुष्ट होने पर राजा ने उससे कहा कि बोलो तुम्हारा क्या भला करूँ। इस पर रानी ने कहा कि रात में इच्छानुसार घूम-फिरकर कौमुदी महोत्सव मनाने की प्रसत्रता प्रकट कीजिए। राजा ने उसे स्वीकार कर नगर में यह घोषणा करा दी कि आज रात में नगर के भीतर जो भी पुरुष रहेगा उसे मेरे द्वारा भयानक शारीरिक दण्ड दिया जायेगा। आगे की कथा का प्रसंग प्रायः समान है।
इस प्रकार प्रकत कथा के विषय में तीन मत दष्टिगोचर होते हैं। इनमें प्रथम मत सत्रकतांगगत उक्त सूत्र के साथ संगति को प्राप्त है। कारण यह कि सूत्र में उल्लिखित चोरपद की सार्थकता इसी मत से घटित होती है। (६) श्रावकप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति
व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र) १२ अंगों में पाँचवाँ है। श्रा. प्र. (३३३) में गृहस्थधर्म सम्बन्धी १४७ प्रत्याख्यानभेदों के प्रसंग में शंका के रूप में कहा गया है कि कितने ही जैन मतानुसारी यह कहते हैं कि गृहस्थ के कृत-कारितादि रूप तीन प्रकार के सावध का प्रत्याख्यान तीन प्रकार से सम्भव नहीं है। इस मत का निराकरण करते हुए वहाँ कहा गया है कि तीन प्रकार से तीन प्रकार के सावध का वह प्रत्याख्यान गृहस्थ के भी सम्भव है, क्योंकि प्रज्ञप्ति-व्याख्याप्रज्ञप्ति में उसका विशेष रूप में निर्देश किया गया है। इस प्रकार यहाँ 'प्रज्ञप्ति' के नाम से ग्रन्थकार ने व्याख्याप्रज्ञप्ति या भगवतीसूत्र की ओर संकेत किया है। टीका में 'प्रज्ञप्ति' से 'भगवती' को ग्रहण किया गया है तथा वहाँ 'तिविहं पि' इत्यादि रूप से उस सूत्र की ओर संकेत भी किया गया दिखता है। ग्रन्थ समक्ष न होने से हम उस सूत्र को नहीं खोज सके।
(७) श्रावकप्रज्ञप्ति और उवासगदसाओ
उवासगदसाओ १२ अंगों में सातवाँ अंग है। वह १० अध्ययनों में विभक्त है, जिनमें क्रम से आनन्द आदि १० उपासकों का जीवनवृत्त वर्णित है। उसके प्रथम अध्ययन में जिस आनन्द उपासक का जीवनवृत्त है वह श्रमण भगवान् महावीर की धर्मसभा में पहुँचा। वहाँ उसने विनयपूर्वक भगवान् की वन्दना की और उनसे धर्मश्रवण किया। तत्पश्चात् उसने अपने मुण्डित होने-निर्ग्रन्थ दीक्षा लेने की