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श्रावकप्रज्ञप्तिः
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इदमपि च शिक्षापदव्रतमतिचाररहितमनुपालनीयमिति । अत आह
अप्पडिदुप्पडिलेहियसिज्जासंथारयं विवज्जिज्जा ।
अपमज्जियदुपमज्जिय तह उच्चाराइभूमिं च ॥३२३॥ अप्रत्युपेक्षित-दुःप्रत्युपेक्षितशय्या-संस्तारको वर्जयेत् । इह संस्तीर्यते यः प्रतिपन्नपौषधोपवासेन दर्भ-कुश कम्बल-वस्त्रादिः स संस्तारकः, शय्या प्रतीता। अप्रत्युपेक्षणं गोचरापन्नस्य शय्यादेः चक्षुषानिरीक्षणम् । दुष्टमुभ्रान्तचेतसः प्रत्युपेक्षणं दुष्प्रत्युपेक्षणम् । ततश्चाप्रत्युपेक्षितदृष्प्रत्युपेक्षितौ च शय्या-संस्तारको चेति समासः। शय्यैव वा संस्तारक इति । एवमन्यत्रापि क्षरगमनिका कार्येति । उपलक्षणं च शय्या-संस्तारकावपयोगिनः पीढ-फलकादेरपि ।
एत्थं सामायारी-कडपोसहो णो अप्पडिलेहिय सेज्जं दुरुहइ संथारगं वा दुरुहइ पोसहसालं वा सेवइ दब्भ वत्थं वा सुद्धवत्थं वा भूमीए संथारेइ । काइयभूमीउ वा आगओ पुणरवि पडिलेहइ, अन्नहातियारो। एवं पीढ-फलगादिसु वि विभासा। नहीं रहता। किन्तु जो सर्वपोषधको करता है वह नियमसे सामायिक करता है, यदि वह नहीं करता है तो वह स्वीकृतव्रतसे वंचित होता है। पोषधोपवासव्रतोको चैत्यगृहमें, साधुके समीपमें, घरमें अथवा पौषधशालामें कहीं भी मणि-सुवर्ण आदिको छोड़कर सामायिक करते हुए पढ़ना चाहिए, पुस्तकका वाचन करना चाहिए अथवा धर्मध्यान करना चाहिए। उसे विचार करना चाहिए कि ये श्रेष्ठ गुण हैं, मैं अभागा उन्हें धारण करनेके लिए असमर्थ हूँ, जो अनिवार्य रूपसे उनका परिपालन नहीं कर पाता ॥३२२।।
आगे इसे निरतिचार पालनके लिए उसके अतिचारोंका निर्देश किया जाता है
पौषधोपवासव्रती श्रावकको अप्रत्यपेक्षित-दुष्प्रत्युपेक्षित शय्या-संस्तारक, अप्रमार्जितदुःप्रमार्जित शय्या-संस्तारक, अप्रत्यपेक्षित-दुष्प्रत्य्पेक्षित उच्चारादिभूमि और अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित उच्चारादि भूमिका परित्याग करना चाहिए।
विवेचन-प्रकत गाथामें इस व्रतके चार अतिचारोंका निर्देश किया गया है। वे इस प्रकार हैं-१) अप्रत्यपेक्षित-दुष्प्रत्युपेक्षित शय्या-संस्तारक-शय्यासे अभिप्राय चारपाई या पलंग आदिका तथा आसनसे अभिप्राय डाभके आसन व कम्बलवस्त्र आदिका है। इनका उपयोग आंख से देखे बिना अथवा असावधानी या अधीरतासे देखकर करना। (२) उक्त शय्या व संस्तारकका उपयोग कोमल वस्त्र आदिसे झाड़े-पोंछे बिना अथवा व्याकुल चित्तसे झाड़-पोंछकर करना, यह अप्रमार्जित-दुष्प्रमाजित शय्या-संस्तारक नामका दूसरा अतिचार है। (३) उच्चार नाम मलका है, आदि शब्दसे मूत्र व कफ आदिको ग्रहण करना चाहिए। मल-मूत्रादिके विसर्जनके समय भूमिको बिना देखे ही अथवा अधीरतासे देखकर उनका विसर्जन करना, यह अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षित उच्चारादिभूमि नामका तीसरा अतिचार है। (४) इसी प्रकार उक्त मल-मूत्रादि विसर्जनको भूमिको कोमल वस्त्र आदिसे झाड़ने-पोंछनेके बिना या दुष्टतापूर्वक झाड़-पोंछकर वहां मल-मूत्रादिको विसर्जित करना, यह उक्त व्रतका अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित उच्चारादिभूमि नामका
१. अमन्यत्राप्यक्षरगम' इत्यतोऽग्रे ‘णो अप्पडिले' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । (अग्रे एक-दोपंक्तय उपरिमाः लिखिताः, तत्पश्चाच्च एक-दोपंक्तयोऽधस्तना लिखिताः, एवं मुहर्महः पंक्तिव्यत्यासः कृतः । एवं च सति समस्तोऽपि संदर्भोऽस्तव्यस्तो जातः)।