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प्रथमशिक्षापदे साधु-श्रावकयोर्भेदप्रदर्शनम् मोहाऊवज्जाणं पयडीणं ते उ बंधगा भणिया ।
उवसंतखीणमोहा केवलिणो एगविहेबंधा ॥३०७॥ मोहायुर्वर्जानां प्रकृतीनां ज्ञानावरणादिरूपाणां ते तु सूक्ष्मसंपराया बन्धका भणिताः। मोहनीयं नै बध्नन्ति, निदानाभावात्तस्य किंचिच्छेषमात्रत्वावस्थितावप्यसमर्थत्वात, आयुष्क न बध्नन्ति, तथाविधपरिणामोपात्तस्य वेदनास्थानाभावात् । उपशान्त-क्षीणमोहाः श्रेणिद्वयोपरिवर्तिनः उपशान्त-क्षीणच्छद्मस्थवीतरागाः केवलिनश्च सयोगिभवस्था एकविधबन्धका इति ॥३०॥
ते पुण दुसमयठिइस्स बंधगा न उण संपरायस्स ।
सेलेसीपडिवन्ना अबंधगा हुति नायव्वा ॥३०८॥ तिथंच और मनुष्योंमें जो जीव सोपक्रमायुष्क-आयुके विघातक उपक्रमसे सहित-होते हैं वे अपनी भुज्यमान आयुके दो त्रिभागोंके बीत जानेपर आयुबन्धके योग्य होते हैं। आयुबन्धके योग्य इस कालमें कितने ही जीव आठ बार, कितने ही सात बार, छह बार, पांच बार, चार बार, तीन बार, दो बार और कितने ही एक बार उस आयुको बाँधा करते हैं। उनमें जिसने अपनी भुज्यमान आयुके तृतीय त्रिभागके प्रथम समयमें उसका बन्ध प्रारम्भ किया है वह उसे अन्तमहतंमें समाप्त करके आठवें अपकर्षकाल तक बांधो गयी समस्त आयुस्थितिके नौवें और इसी क्रमसे सत्ताईसवें आदि भागके शेष रहनेपर फिरसे भी उस आयुबन्धके योग्य हुआ करता है। परन्तु जिस जीवके उन आठ अपकर्षकालोंमें-से एक बार भी उसका बन्ध नहीं होता है वह उसे असंक्षेपाद्धाकाल (आवलीके असंख्यातवें भाग ) में नियमसे उसको बांधता है। निरुपक्रम-आयुविघातक उपक्रमसे रहित-असंख्यातवर्षायुष्क भोगभूमिज मनुष्य व तिथंच तथा देव व नारकी जीव अपनी भुज्यमान आयुके छह मास मात्र शेष रह जानेपर उसके तृतीय विभाग, नौवें और सत्ताईसवें आदि भागमें परभव सम्बन्धी आयुके बन्धके योग्य हुआ करते हैं (विशेषके लिए देखिए पु. १० पृ. २३३ व २३८ तथा पु. ६, पृ. १७०)। आठवें और नौवें गुणस्थानवर्ती जीव आयुके बिना सात मूल प्रकृतियोंके बन्धक हैं। इसका कारण यह है कि आयुका बन्ध सातवें गुणस्थान तक हो होता है, उसके आगे नहीं होता। सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थानवी जीव मोहनीय और आयुके बिना छह प्रकृतियोंके बन्धक हैं ॥३०६।।
आगे सूक्ष्मसाम्परायको उक्त छह प्रकृतियोंका निर्देश करते हुए एकविधबन्धक कौन हैं, उनका भी उल्लेख किया जाता है
उपर्युक्त सूक्ष्मसाम्परायिक संयत मोह और आयुको छोड़कर शेष छह मूल प्रकृतियोंके बन्धक कहे गये हैं । क्रमसे उपशमणि और क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ उपशान्तमोह व क्षीणमोह तथा सयोगिकेवली ये एकविध बन्धक हैं-एकमात्र वेदनीय कर्मके बन्धक हैं। कारण यह है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, नाम, गोत्र और अन्तराय इन पांच प्रकृतियोंका बन्ध दसवें गुणस्थान तक ही होता है ॥३०७॥
आगे उक्त उपशान्तकषायादिको बन्धस्थितिका दिग्दर्शन कराते हुए यह दिखलाते हैं कि अयोगिकेवलो बन्धक नहीं हैं
१.अ मोहउयवज्जाणं पगडीए उ । २. अ एगविध । ३. 'न' नास्ति । ४. अ किंचिद्विशेष ।
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