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श्रावकप्रज्ञप्तिः
[३०५तथा बन्धश्च भेदक इत्येतदाह
मूलपयडीसु जइणो सत्तविहट्टविह-छव्विहिक्कविहं'।
बंधंति न बंधंति य इयरे उ सत्तविहबंधा ॥३०॥ मूलप्रकृतिषु ज्ञानावरणादिलक्षणासु विषयभूतासु तस्मिन् विषय इति । के ? यतय इति साधवः । सप्तविधाष्टविध षड्विधैकविधबन्धकाबन्धकाश्च भवन्ति, एतद्भावयिष्यति । इतरे श्रावकाः। सप्तविधबन्धकाः। तुशब्दादष्टविधबन्धकाश्चायुष्कबन्धकाल इति ॥३०५।। एतदेव विवृण्वन्नाह
सत्तविहबंधगा हुति पाणिणो आउवज्जियाणं तु ।
तह सुहुमसंपराया छविहबंधी विणिद्दिद्दा ॥३०६॥ सनविक्षन्धका भवन्ति । प्राणिनो "जीवाः । आयुर्वजितानामेव ज्ञानावरणीयादिप्रकृतीनां समानामिति । तथा सक्ष्मसंपरायाः श्रेणिद्वयमध्यवर्तिनः तथाविधलोभाणुवेदकाः। षविधबन्धका विनिर्दिष्टास्तीर्थकृद्धिरिति ॥३०६॥
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परन्तु श्रावकके यदि वह अविरतपम्यग्दृष्टि-चतुर्थ गुणस्थानवर्ती-है तो अनन्तानुबन्धिचतुथ्यको छोड़ शेष 'बारह कषायोंका उदय रहता है। उसके संयतासंयत-पंचम गुणस्थानवर्तीहोनेपर उसके चार प्रत्याख्यानावरण और चार संज्वलन इन आठ कषायोंका उदय रहता है। इस प्रकार कषायको अपेक्षा भी साधु और श्रावक दोनोंमें भेद जानना चाहिए ।।३०४॥
आगे क्रमप्राप्त बन्धकी अपेक्षा भी उन दोनों में भेद दिखलाया जाता है
साधु ज्ञानावरणादि आठ मूल प्रकृतियोंमें सात (आयुको छोड़कर ) प्रकारको, आयुके साथ आठ प्रकारकी. छह प्रकारको और एक प्रकारको प्रकृतियोंको बांधते हैं, तथा नहीं भी बांधते हैं। पर चतुर्थ और पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक सात प्रकारको प्रकृतियोंको बांधते हैं। गाथामें उपयुक्त 'उ' शब्दसे यह भी सूचित किया गया है कि आयुबन्धके समयमें वे आठ प्रकारको प्रकृतियोंको भी बांधते हैं ॥३०५॥
आगे प्रकृत गाथाके अभिप्रायको स्पष्ट करते हुए सात प्रकारके बन्धक कौन और छह प्रकारके बन्धक कौन हैं, इसे स्पष्ट करते हैं
प्राणी आयको छोडकर सात प्रकारके बन्धक होते हैं तथा सूक्ष्मसाम्परायिक संयत छह प्रकारके बन्धक कहे गये हैं।
विवेचन-कर्मको मूल प्रकृतियाँ ये आठ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें प्रथम गुणस्थानसे लेकर सातवें गुणस्थान तक जब आयुकर्मका बन्ध नहीं होता है तब जोव उस आयुके बिना शेष सात प्रकृतियोंके बन्धक होते हैं तथा आयुबन्धके समय वे आठों ही मूल प्रकृतियोंके बन्धक होते हैं। यहां इतना विशेष समझना चाहिए कि तीसरे ( मिश्र ) गुणस्थानमें आयुका बन्ध सम्भव नहीं है, अतः इस गुणस्थानवर्ती सम्यमिथ्यादृष्टि जीव सदा सात प्रकृतियोंके हो बन्धक होते हैं। आयुका बन्ध ज्ञानावरणादिके समान सदा नहीं होता। आयुकी अपेक्षा जीव दो प्रकारके हैं-सोपक्रमायुष्क और निरुपक्रमायुष्क । कर्मभूमिज
१. अच्छविहेक्कविहं । २. अन च बंधंति उ इतियरे सत्तविहबंधाउ । ३. अ षड्विधैकविधं बध्नति न बघ्नंत्येतद् भावयिष्यति । ४. अ आउवज्ज गाणं । ५. अ जीवायुर्वज्जिता।