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१८२ श्रावकप्रज्ञप्तिः
[३००उपपातो विशेषक इत्येतदाह
अविराहियसामन्नस्स साहुणो सावगस्स ये जहन्नो ।
सोहंमे उववाओ भणिओ तेलुक्कदंसीहिं ॥३०॥ अविराधितश्रामण्यस्य प्रव्रज्यादिवसादारभ्याखण्डितश्रमणभावस्य साधोः। श्रावकस्य च, अविराधितश्रावकभावस्येति गम्यते। जघन्यः सर्वस्तोकः । सौधर्मे प्रथमदेवलोके। उपपातो भवति जन्म भणित उक्तः त्रैलोक्यशिभिः सर्वज्ञैरिति ॥३०॥
उक्कोसेण अणुत्तरअच्चुयकप्पेसु तत्थ तेसि ठिई।
तित्तीससागराइं बावीसं चेव उक्कोसा ॥३०१॥ उत्कृष्टतोऽनुत्तराच्युतकल्पयोरिति-साधोरनुत्तरविमानेषु, श्रावकस्याच्युतकल्प उपपात इति द्वारम् । तत्र तयोरिति तत्रानुत्तरविमानाच्च्युतयोस्तयोः साधु-श्रावकयोः स्थितिविशिष्टप्राणसंधारणात्मिका यथासङ्ख्यं त्रयस्त्रिशत्सागरोपमणि द्वाविंशतिरित्युत्कृष्टा-साधोस्त्रय. स्त्रिशदनुत्तरेषु, श्रावकस्य तु द्वाविंशतिरच्युत इति गाथार्थः ॥३०१॥
पलिओवमप्पुहुत्तं तहेव पलिओवमं च इयरा उ ।
दुहं पि जहासंखं भणियं तेलुक्कदंसीहिं ॥३०२॥ पल्योषमपृथक्त्वं तथैव पल्योपमं चेतरा जघन्या सौधर्म एव साधोः पल्योपमपृथक्त्वं स्थितिः। द्विप्रभृतरा नवभ्यः पृथक्त्वम् । श्रावकस्य तु पल्योपममिति । अत एवाह द्वयोरपि साधु-श्रावकयोभणिता त्रैलोक्यशिभिः, स्थितिगम्यते इति द्वारम् ॥३०२॥ कालमें समस्त सावद्य योगका त्याग कर देनेके कारण साधु जैसा है। इस प्रकार इस गाथासूत्रसे भी श्रावक और साधुमें भेद सिद्ध है ।। २२९ ॥
आगे जघन्यसे उपपातको अपेक्षा भी साधु और श्रावकमें भेद दिखलाया जाता है--
जिसने श्रमणाचारको विराधना नहीं को है वह श्रमण तथा जिसने श्रावकाचारको विराधना नहीं की है वह श्रावक भी जघन्यसे सोधर्म कल्पमें उत्पन्न होता है । इस प्रकार त्रिलोकदशियों ( सर्वज्ञों ) के द्वारा उन दोनोंका उपपात जघन्यसे सौधर्म कल्पमें कहा गया है ॥३०॥
आगे उत्कर्षसे उनके उपपातको दिखलाते हए वहां उनका उत्कर्षसे कितने काल तक उनका अवस्थान रहता है, इसका भी निर्देश किया जाता है
उत्कर्षसे उनका उपपात क्रमसे अनुत्तर और अच्युत कल्पोंमें होता है, अर्थात् अविराधित श्रमणाचारका पालन करनेवाला साधु उत्कर्षसे अनुत्तर विमानोंमें तथा निरतिचार श्रावकाचारका पालन करनेवाला श्रावक उत्कर्षसे अच्युत कल्पमें उत्पन्न होता है। वहां उनकी उत्कृष्ट आयुस्थिति यथाक्रमसे तैंतीस सागरोपम और बाईस सागरोपम काल तक होती है ॥३०१॥
आगे वहां उनकी जघन्य आयुका निर्देश किया जाता है
उपर्युक्त साधु और श्रावकको जघन्य आयु उक्त सौधर्म कल्पमें त्रिलोकदर्शियों ( सर्वज्ञों) के द्वारा यथाक्रमसे पल्योपमपृथक्त्व और पल्योपम मात्र कही गयो है । दोसे लेकर नौ पर्यन्तकी संख्याका नाम पृथक्त्व है ।।३०२।।
१. अ 'य' नास्ति । २. अ कप्पेसु तत्थेस्तु ठितो। ३. अ तेवीस सागराइ। ४. अ अतोऽग्रेऽग्रिम 'पृथक्त्वं' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति ।