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प्रथमशिक्षापदप्ररूपणा
१७७.
प्राप्तिरिति पर्यायाः, समस्यायः समायः। समो हि प्रतिक्षणमपूर्ज्ञान-दर्शन-चारित्रपर्यायनिरुपमसुखहेतभिरध:कृतचिन्तामणिकल्पद्रुमोपमैर्यज्यते । स एव समायः प्रयोजनमस्य क्रियानष्ठानस्येति सामायिकम्। समाय एव वा भवं सामायिकमिति शब्दार्थः। एतत्स्वरूपमाह-तत्तु सामा. यिकं ज्ञातव्यं विज्ञेयम् । स्वरूपतः कीदृगिति आह -सावद्येतरयोगानां यथासंख्यं वर्जनासेवन रूपमिति । तत्रावचं गहितं पापम्, सहावशेन सावद्यम, योगा व्यापाराः कायिकादयः तेषां' वर्जनारूपं परित्यागरूपमित्यर्थः । कालावधिनैवेति गम्यते । मा भूत्सावायोगपरिवर्जनामात्रमणपव्यापारासेवनाशून्यमेव सामायिकमिति, अन आह-इतरयोगापेवनारूतं निरवद्ययोगप्रतिसेवनारूपं चेति । सावद्ययोगपरिवर्जनवन्निरवद्ययोगपरिसेवनेऽपि अहनिशं यत्नः कार्य इति दर्शनार्थमेतदिति । एत्थ पण सामायारो-सामाइयं सावगेणं कई कायन्वं ति? इह सावगो दुविहो इढिपत्तो अणि ढिपत्तो य । जो सो अणि ढिपतो सो चेइयघरे साहसमोवे घरे वा पोसहसालाए वा जत्थ वा वीसमई अच्छड वा निव्वावारी सम्वत्थ करेड सव्वं. चउस ठाणेस णियमा कायव्वं चेइयघरे साहुप्ले पोसहसालाए घरे आवस्सगं करोति त्ति । तत्थ जइ साहुसगासे करेइ तत्य को विही ? जइ परंपरभयं णत्थि, जइ विय केणइ समं विवाओ णत्थि, जइ कस्पइ न धरेइ, मा तेण अच्छविच्छिथि कड ढिहिइ य, धारणगं दठूग गेण्हइ, मा भन्जिहिइ, जइँ वावारं ण करेइ ताहे घरे चेव साधाइयं काऊण वच्चइ पंचममिओ तिगतो इरियाउवउतो जहा साहू भासाए सावज्जं परिहरंतो एसणाए कटुं लेट्टुं वा पडिलेहिउँ पमज्जि। एवं आयाणे निक्खिवणे खेलशब्दका निरुक्त अर्थ करते हुए यहां यह कहा गया है कि जो राग-द्वेषसे रहित होकर समस्त प्राणियोंको अपने समान ही देखता है उसका नाम 'सम' है, 'आय' शब्द का अर्थ प्राप्ति है. तदनुसार समजीव जो प्रतिसमय अनुपम सुखकी कारणभून अपूर्व ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप पर्यायोंसे संयुक्त होता है उसे समाय (सम+आय ) कहा जाता है। यह समाय हो जिस क्रिया-अनुष्ठानका प्रयोजन हो उसका नाम सामायिक है। अथवा 'समाये भवम् सामायिकम्' इस विग्रहके अनुसार समाय हो जानेपर जो अवस्था होती है उसे सामायिकका लक्षण समझना चाहिए। यह सामायिक शब्दकी सार्थक संज्ञा है। अभिप्राय इसका यह हुआ कि श्रावक जो नियत समय तक सर्वसावद्ययोगके परित्यागपूर्वक निरवद्य योग-निष्पाप व्यापार--का परिपालन करता है, यह श्रावकका सामायिक नामक प्रथम शिक्षापदव्रत है।
यहां सामाचारी-श्रावकको सामायिक कैसे करना चाहिए, इसके उत्तरमें यहां कहा गया है कि श्रावक दो प्रकारका होता है-ऋद्धिप्राप्त और अनृद्धिप्राप्त । इनमें जिसे ऋद्धि प्राप्त नहीं हई है वह चैत्यगृहमें, साधुके समीपमें, घरमें, प्रौषधशालामें, अथवा जहाँ भी वह व्यापारसे रहित होकर विश्रामपूर्वक स्थित रह सकता है वहां सर्वत्र सब कर सकता है। पर चैत्यगृह, साधुके मूलमें, प्रौषधशालामें व घरमें इन चार स्थानोंमें वह सब आवश्यक करता है। इनमें-से यदि वह साधुके समीपमें करता है तो क्या विधि है, इस प्रश्नके उत्तरमें कहा जा रहा है कि यदि दूसरेसे भय नहीं है, यदि किसीके साथ विवाद नहीं है, यदि कोई पकड़-धकड़ नहीं करता है, घृणा नहीं करता है, कर्षण नहीं करता है तथा पकड़ते हुए देखकर ग्रहण नहीं करता है, भागता नहीं है। यदि व्यापार नहीं करता है तो घर पर हो सामायिक करके पांच समितियोंसे सहित, तीन गुप्तियों
१. मु व्यापाराः तेषां । २. अ वीसह। ३. अ णत्थि जइ सत्थए न धरेइ मा तेण अच्छवियंछ कज्जिहिइ जइय धारणगं दठ्ठण ण गण्हइ भिज्जिहिइ जइ ।