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श्रावक प्रज्ञप्तिः
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सामायारी-उवभोगातिरित्तं जइ तेल्लामलए बहुए गेण्हइ तो बहुगा व्हायगा वच्चंति तस्स लोलियाए। अन्ने वि व्हायगा व्हायंति-पच्छा पूयरगआउकायादिवहो होइ । एवं पुप्फ-तंबोलादिसु विभासा। एवं न वट्टइ । का विही सावगस्स उवभोगे पहाणे ? घरे व्हाइयव्वं, नत्थि ताहे तेल्लामलएहि सीसं घसित्ता सम्वे साडविऊ णेताहे तलागाईणं तडे निविट्ठो अंजलीहिं हाइ। एवं जेसु य पुप्फेसु पुप्फकुंथू ताणि परिहरइ ।।५।। ॥२९१॥
उक्तं सातिचारं तृतीयगुणवतम् । गुणवतानन्तरं शिक्षापदव्रतान्याह तानि चत्वारि भवन्ति । तद्यथा-सामायिकं देशावकाशिकं पौषधोपवासः अतिथिसंविभागश्चेति । तत्राद्यमाह
सिक्खापयं च पढमं सामाइयमेव तं तु नायव्वं ।
सावज्जेयरजोगाण वज्जणासेवणारूवं ॥२९२।। शिक्षा परमपदप्रापिका क्रिया, तस्याः पदं शिक्षापदम् । तच्च प्रथममाद्यं सूत्रक्रमप्रामाण्यात् । सामायिकमेव-समो राग-द्वेषवियुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत्पश्यति, आयो लाभः प्रकृत व्रतका चौथा अतिचार है। उनके संयुक्त रहनेपर कोई भी उन्हें अनायास मांगकर ले जा सकता है। रत्नकरण्डक ( ८१ ) और सागारधर्मामृत (५-१२) आदिमें इस अतिचारको 'असमीक्ष्याधिकरण' के नामसे निर्दिष्ट किया गया है। उसका अभिप्राय है कि प्रयोजनका विचार न करके लकड़ी, ईंट व पत्थर आदिको आवश्यकतासे अधिक मंगवाना या तैयार कराना। सागारधर्मामृतमें तो श्रावक प्रज्ञप्तिके अन्तर्गत कुछ स्पष्टीकरणके साथ अभिप्रायको भी अन्तर्गत कर लिया है। यहाँ सामाचारी-श्रावकको गाड़ी आदि उपकरणोंको संयुक्त-जुड़े हुए उपकरणोंके साथ-नहीं धरना चाहिए। इसी प्रकार बसूला और फरसा आदिके विषयमें भी समझना चाहिए। (५) उपभोग-परिभोगातिरेकता-उपभोग और परिभोगके साधनोंको आवश्यकतासे अधिक मात्रामें रखना, यह इस व्रतका पांचवां अतिचार है। यहां सामाचारी-उदाहरणार्थस्नानके लिए तालाब आदिपर जाते समय तेल ,आंवले आदिको अधिक मात्रामें ले जाना। ऐसा करनेपर दूसरे भी कितने ही मनुष्य लोलुपताके वश नहानेके लिए साथमें जाते हैं। इससे पूयरग (?) और जलकायिक आदि जीवोंका वध होता है। इसी अभिप्रायको फूल और पान आदिके विषयमें भो समझना चाहिए । इस प्रकारकी प्रवृत्ति उचित नहीं है। तब फिर श्रावकके लिए उपभोग व हानेकी क्या विधि है, इस प्रश्नके उत्तरमें कहा गया है कि श्रावकको प्रथम तो घर में ही नहाना चाहिए। यदि घरमें नहाना नहीं हो सकता है तो तेल और आंवलोंसे सिर घिसकर और उसे अलग करके तब कहीं तालाब आदिके तटपर जाना चाहिए और वहां बैठकर अंजुलियोंसे नहाना चाहिए। इसी प्रकार जिन फूलोंमें पुष्पकोट आदि हों उनको छोड़ना चाहिए ।।२९१॥
इस प्रकार अतिचारोंके साथ अन्तिम तीसरे गुणव्रतका निरूपण करके तत्पश्चात् सामायिक, देशावकाशिक, पोषधोपवास और अतिथिसंविभाग इन चार शिक्षापदव्रतोंकी प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः सामायिक शिक्षापदव्रतका स्वरूप कहा जाता है
उक्त चार शिक्षापदोंमें प्रथम सामायिक शिक्षापदको ही जानना चाहिए। वह क्रमसे सावद्य योगके परित्याग और इतर-निष्पाप योगके आसेवन रूप है।
विवेचन-मोक्षपदको प्राप्त करानेवाली क्रियाका नाम शिक्षा है, उस शिक्षाके पद (स्थान) को शिक्षापदव्रत कहा जाता है। सूत्रक्रमके अनुसार सामायिक यह प्रथम शिक्षापद है। सामायिक
१. अ आउकायव हो इ पुष्पतंबोलमाइंसु । २. अ साडिऊण ।