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श्रावकप्रज्ञप्तिः
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एवमेव शास्त्रोक्तेन विधिना । यन्त्रपीडनकर्म निलंछनं च कर्म दवदानं सरोहदतडागशोषं असतीपोषं च वर्जयेदिति गाथाद्वयाक्षरार्थः । भावार्थस्तु वृद्धसंप्रदायादेव अवसेयः । स चायम्
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इंगालकमंत इंगाले हिउं विक्किणइ तत्थ छहं कायाणं वहो, तं न कप्पड़ । वणकम् जो वणं किणइ पच्छा रुवखे छिदिउं मुल्लेण जीवइ । एवं पत्तिगाइवि पडिसिद्धा भवंति । साडीकम्मं सागडियत्तणेण जीवइ । तत्थ बंध वहाई बहुदोसा । भाडीकम्मं सएण भंडोवक्खरेण भाडण वहइ, परागं ण कप्पइ । अन्नेसि वा सगडे बइल्लयवेई, एवमाइ ण कप्पइ । फोडीकम्मं उडत हले वा भूमि फाडेउं जीवइ । दंतवाणिज्जं पुव्वं चेव पुलिदाणं मुल्लं देइ दंते देज्जाहित्ति, पच्छा पुल्लिंदा हत्थि घाएंर्ति अचिरा सो वाणियओ एतित्ति काउं । एवं धीवराणं संखमुल्लं देइ । एवमाइ न कप्पइ । पुष्वाणीयं किणइ । लक्खवाणिज्जे वि एए चेव दोसा तत्थ किमिया होंति । रसवाणिज्जं कल्लावालगत्तणं । तत्थ सुरादिपाणे बहुदोसा मारण अक्कोसबहाई । तम्हा न कप्पइ | केसवाणिज्जं दासीओ गहाय अन्नत्थ विक्किणइ जत्थ अग्घेति । एत्थ वि अणेगे दोसा परवसत्तादयो । विसवाणिज्जं विसविक्कओ, सो ण कप्पइ । तेण बहूण जीवाण विराहणा । जतपीलणकम्मं तेल्लियजंतं वुच्छुजंतं चक्कमादी, तं न कप्पs | निल्लंछणकम्मं वड्ढे बल्लद्दाइ न' कप्पs | दवग्गिदावणयाकम्मं वणदयं देइ छेत्तरक्खगनिमित्तं, जहा उत्तरावहे, पच्छा दड्ढे तरुणगतणं उट्ठेई । तत्थ सत्ताणं सयसहस्साण वहो । सरदहतलाय सोसणयाकम्मं सर- दह- तलाईणि सोसेड पच्छा वाविज्जइ, एयं ण कप्पइ । असईपोसणयाकम्मं असईओ
अब उनमें शेष पांच कर्मोंका भी निर्देश किया जाता है—
इस प्रकार यन्त्र पोड़न कर्म, निलछन कर्म, दवदान, सर-द्रह- तडागशोषण और असतीपोष इस भोगोपभोग परिमाण व्रतीको कर्म विषयक इन शेष पांच अतिचारोंका भी परित्याग करना चाहिए ।
विवेचन - इन कर्मों का भी स्पष्टीकरण इस प्रकार है । (११) यन्त्रपीड़न कर्म - तेल के यन्त्र ( कोल्हू ), ईख के यन्त्र और चक्र आदि कर्मों को भी हेय जानकर इनका भी श्रावकको परित्याग करना चाहिए। कारण यह कि इन यन्त्रोंके द्वारा तेल व ईखके रस आदिके निकालने में प्राणियोंपीड़ा हुआ करती है । (१२) निछन कर्म - इस कर्ममें बैलोंका बधिया - सन्तानोत्पत्ति के
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किया जाता है, इससे उनको भारी कष्ट पहुँचता है । इसके अतिरिक्त उसकी नासिकाको छेदकर उसके भीतर रस्सी डाली जाती है व उन्हें नियन्त्रण में रखनेके लिये उसे इधर-उधर खींचा जाता है । बहुतसे पशुओंके कान आदि अवयवोंको छेदा जाता है । इन सब क्रियाओं से प्राणियों को बहुत कष्ट पहुँचता है । इसीलिए श्रावककों इसका परित्याग करना ही श्रेयस्कर है । (१३) दवदान - क्षेत्रकी रक्षाके लिए कहीं-कहीं वनमें आग लगाई जाती है, जिससे असंख्य प्राणियोंका मरण होता है । खेतको उपजाऊ बनाने के लिए उसमें भी कभी आग लगायी जाती है । जैसे उत्तर भारत में वृक्षोंको उत्पन्न करनेके लिए आग लगायी जाती है, जिससे वृक्षसमूह अंकुरित होता है । यह कर्म भी प्राणिपोड़ाका कारण होनेसे श्रावकके लिए हेय है । (१४) सरद्रह- तडागशोषण - तालाब आदि जलाशयोंके पानोको निकालकर व उन्हें सुखाकर धान्य आदिको बोया जाता है, इसे सर-द्रह- तडागशोषण कर्म कहा जाता है । इससे जल-जन्तुओंके साथ १. अनिलांछन । २. अ अंगाले । ३. अ तन्न । ४ अ पुन्नगाइवि । ५. अ बंधवहोयं च दोसा । ६. भ बइल्लेयवेइ । ७ अ उडत्तेणं । ८ अ घणंति । ९. भ वड्ढेऊ बलद्दाही ण ।