________________
१७१
- २८८]
तृतीयगुणवतप्ररूपणा कांगारकरणविक्रयविषया। एवं शेषेष्वप्यक्षरगमनिका कार्या । तथा वाणिज्यं चैव, दन्त-लाक्षारस-केश-विषविषयं दन्तादिगोचरम्। वर्जयेत् परिहरेदिति ॥२८७॥ ।
एवं खु जंतपीलणकम्मं निन्लंछणं च दवदाणं ।
सर-दह-तलायसगेसं असईपोसं च वन्जिज्जा ॥२८८॥ होता है, इसीलिए श्रावकको ऐसा सावध कर्म करना उचित नहीं है। (२) वनकर्म-जो जंगलको खरीदकर या ठेकेपर लेकर उसमें स्थित वृक्षोंको कटवाता है.और उनके मूल्यसे आजीविका करता है, इसके अतिरिक्त पत्तियों आदिको तुड़वाकर उनसे आजीविका चलाता है, इसे वनकर्म कहा जाता है। प्राणिविघातका कारण होनेसे यह कर्म भी श्रावकके लिए निषिद्ध है। (३) शकटकर्मशकट नाम बैलगाड़ीको चलाकर उसके आश्रयसे जीविका करना, इसे शकटकर्म कहा जाता है। इस क्रियामें बैलोंको बांधना, उन्हें गाड़ीमें चलाना एवं ताड़ित आदि करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त गाड़ाके चलाते समय उसके नीचे दबकर कितने ही त्रस जीवोंका घात होता है, इसीलिए श्रावकके लिए यह कर्म निषिद्ध माना गया है। इसी प्रकार गाडीको बनाकर या दूसरोंसे बनवाकर उसे बेचने आदिको भी निषिद्ध समझना चाहिए। (४) भाटक कर्म-गाड़ी आदिके 'द्वारा बोझा ढोकर भाड़ेके आश्रयसे आजीविका करना, इसे भाटककर्म कहते हैं। श्रावक अपनी गाडी आदिके द्वारा निजके बोझे आदिके ढानेका काम कर सकता है. पर दसरेके बोझे आदिको ढोकर उससे भाड़ा कमाना उसे उचित नहीं है। इसी प्रकार दूसरोंसे बैलोंको मांगकर उनके आश्रयसे जीविकाका उपाजित करना भी हेय माना गया है। (५) स्फोटककम-सुरग आदिम बारूदके आश्रयसे पत्थरोंका तोड़ना, हल-बखर आदिके द्वारा भूमिको जोतना व बखरना आद क्रियायें इस स्फोटक कमंके अन्तर्गत मानी जाती हैं। अनेक प्राणियोंका नाशक होनेसे यह कम भा श्रावकके लिए उचित नहीं माना गया। (६) दन्तवाणिज्य-हाथोके दांतोंको देनेके लिए पहलेसे मूल्य देकर उनसे मंगाना और उनके आश्रयसे व्यापार करना, यह दन्तवाणिज्य कहलाता है। व्यापारी उन दांतोंको लेनेके लिए शीघ्र आयेगा, इस विचारसे भील, हाथोको मारकर उसके दांतोंको प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार शंखोंके लिए मूल्य देकर उन्हें धोवरोंसे मंगाना, यह कार्य भी जीववधका कारण होनेसे योग्य नहीं है। हां, याद भील ओर धीवर श्रावकको अनुमतिके विना प्रथम मूल्य न लेकर स्वयमेव उन्हें लाते हैं तो यह श्रावकके लिए दापका कारण नहीं है । (७) लाक्षावाणिज्य--लाखके द्वारा व्यापार इसका नाम लाक्षावाणिज्य है। लाख वृक्षोसे निकाला
है. इसमें कितने हो सक्षम त्रस जोव अनन्तकाय जीवोंका विघात होता है, इस लाखके व्यापारके तथा ऐसे ही जोवविघातक अन्य चोजोंके भी व्यापारका परित्याग करना उचित है। (८) रसवाणिज्य-का अभिप्राय कलालके व्यापारसे है। इस व्यापारमे विभिन्न प्रकारक मद्यका क्रय-विक्रय हुआ करता है । मद्यके पाने में मारना, गाली देना ओर हत्या आदि करना जेस बहुतसे दोष देखे जाते हैं। इसीलिए श्रावकको कलालका व्यापार करना उचित नहीं है। (९) केशवाणिज्य-केशवाली दासियोंको ले जाकर अन्यत्र जहाँ अच्छा मूल्य प्राप्त किया जा सक, बंबना, इसका नाम केशवाणिज्य है। इस व्यापारमें बेचो गयो दासियाको परतन्त्रता, मारन-ताड़न एव बल पूर्वक अनेक उचित - अनुचित कार्योंका करना; इत्यादि अनेक कष्ट सहने पड़त है। इसलिए श्रावकको इस निकृष्ट व्यापारका परित्याग करना ही उचित है। (१०) विषेली वस्तुओक क्रयविक्रयका नाम विषवाणिज्य है। इन वस्तुओंके उपयोगसे बहुतसे जावोकी विराधना देखा जातो है। इसलिए व्रतो श्रावकको इस घृणित व्यापारको भी छोड़ना चाहिए ।।२८७॥