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________________ - २८३ ] द्वितीयगणव्रतप्ररूपणा १६७ ऊर्ध्वमस्तियंगपि च न प्रमाणातिक्रमं सदा कुर्यादिति ऊर्ध्वदिक्प्रमाणातिक्रमो यावत्परिमाणं गृहीतं तस्य अतिलंघनम् तन्न कुर्यात् । १। एवमधोदिक तिर्यक दिकप्रमाणातिक्रमयोरपि भावनीयम् । २,३ । तथैव क्षेत्रवृद्धि न कुर्यात् । यथेदं अतिचारत्रयं क्षेत्रवृद्धिश्च-एकतो योजनशतमभिगृहीतमन्यतो दशयोजनानि, ततस्तस्यां दिशि समुत्पन्ने कार्य योजनशतमध्यादपनीयान्येषां दशादियोजनानां तत्रैव स्वबुद्धया प्रक्षेपो वृद्धिकरणमिति । ४ । कथंचित् स्मृत्यन्तर्धानम्, न कुर्यादिति वर्तते, स्मृतेभ्रंशोऽन्तर्धानं स्मृत्यन्तर्धानम्-किं मया परिगृहीतं कया वा मर्यादये. त्येवमनुस्मरणमित्यर्थः। स्मृतिमूलं हि नियमानुष्ठानम्, तभ्रंशे तु नियमत एव तभ्रंश इति अतिचारतेति ।। तत्र वृद्धसंप्रदायः-उड्ढं जं पमाणं गहियं तस्स उरि पव्वयसिहरे रुक्खे वा पक्खी वा मक्कडो वा सावगस्स वत्थं वा आभरणं वा गिहिउ पमाणाइरेगं भूमि वच्चेज्जा । तत्थ से ण कप्पए गंतुं। जाहे तं पडियं अन्नेण वा आणियं ताहे कप्पइ। एयं पुण अट्ठावय-उज्जंतादिसु हवेज्जा। एवं अहे कुवियाईसु विभासा। तिरियं जं पमाणं गहियं तं तिविहेण वि करणेण णाइक्कमियव्वं । खेत्तवुड्ढी ण कायव्वा सो पुग्वेणं भंडं गहाय गओ जाव तं परिमाणं, तओ परेण तं भंडं अग्घइत्ति काउं अवरेण जाणि जोयणाणि ताणि पुवदिसाए ण छुभेज्जा, सिय वोलोणो होज्जा णियत्तियव्वं । विस्सरीए वा ण गंतव्वं, अन्नो वि न विसज्जियन्वो। अणाणाए कोई गओ होज्जा जं विसुमरियखेत्तगएण लद्धं अणाणाहिगएण वा तं ण गिहिज्जई ॥२८३॥ विवेचन-अभिप्राय यह है कि स्वीकृत व्रतके लिए उक्त पांच अतिचारोंका परित्याग अवश्य करना चाहिए-(१) ऊर्ध्वदिशाप्रमाणातिक्रम-ऊर्ध्वदिशामें पर्वत आदिके ऊपर जितने कोश आदि तक जानेका प्रमाण स्वीकार किया है उसका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिए। उदाहरणार्थं पर्वत शिखर अथवा वृक्ष आदिके पक्षी व बन्दर आदि श्रावकके वस्त्र अथवा आभरण आदिको ले गया है तो उसे उसके लिए स्वीकृत प्रमाणके आगे नहीं जाना चाहिए । हां, यदि कोई अन्य उसकी अनुमतिके विना लाकर दे देता है तो उसे वह ग्रहण कर सकता है। ऐसा न करनेपर उसका वह व्रत इस प्रथम अतिचारसे दूषित होता है । (२) अधोदिशाप्रमाणातिक्रमइसी प्रकार अधोदिशागत प्रमाणके विषयमें भी समझना चाहिए। (३) तिर्यग्दिक्प्रमाणातिक्रमतिर्यग्दिशाओं में पूर्वादिशाओं में भी जितने योजनादि रूप प्रमाणको ग्रहण किया उल्लंघन करनेपर यह तीसरा अतिचार होता है। (४) क्षेत्रवृद्धि-स्वीकृत क्षेत्रके बढ़ा लेनेपर यह चौथा अतिचार होता है। उदाहरणार्थ-यदि कोई बन्दर या चोर आदि किसी वर्तन आदि को लेकर चला गया है तो जितना प्रमाण विवक्षित पूर्व आदि दिशाके विषय में स्वीकार किया है उसके आगे वह वर्तन आदि चूंकि व्रती श्रावकको ग्रहण करनेके योग्य नहीं है, इस विचारसे पश्चिम दिशामें जितने योजनोंका प्रमाण ग्रहण किया है उन्हें विवक्षित पूर्व दिशामें नहीं जोड़ना चाहिए। यदि कदाचित् वह गृहीत प्रमाणके आगे उसे लेकर चला गया है तो स्वीकृत प्रमाणके आगे न जाकर लोट आना चाहिए। (५) स्मृत्यन्तराधान-'मैंने अमुक दिशामें कितने प्रमाणको ग्रहण किया है अथवा किस मर्यादासे ग्रहण किया है' इत्यादिका ठीक-ठीक स्मरण नहीं रहना, इसका नाम स्मृत्यन्तराधान अतिचार है। विस्मृत क्षेत्रके भीतर न स्वयं जाना चाहिए और न किसी अन्यको भी भेजना चाहिए । हां, यदि कोई विना अनुमतिके विस्मृत क्षेत्रमें जाकर उसे ले १. अरेगं तमी उ वच्चेज्जा। २. अ अण्णाणा कोइ । ३. अ अणाहीगएण। ४. अ गैह्नति ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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