________________
श्रावकप्रज्ञप्तिः
[२८२ - तप्तायोगोलकल्पस्तप्तलोहपिण्डसदृशः। कोऽसौ ? प्रमत्तजीवः प्रमादयुक्त आत्मा। असावनिवारितप्रसरोऽनिवृत्त्या अप्रतिहतप्रमादसामर्थ्यः सन् तथागते । सर्वत्र क्षेत्रे किं न कुर्यात् ? कुर्यादेव पापम् अपुण्यम् । तत्कारणानुगतः प्रमादपापकारणानुगत इति ॥२८॥
पडिवन्नम्मि य विहिणा इमम्मि तव्वज्जणं गुणो नियमा ।
अइयाररहियपालणभावस्स वि तप्पसूईओ ॥२८२॥ प्रतिपन्ने चाङ्गीकृते च। विधिना सूत्रोक्तेन । अस्मिन् गुणवते। तद्वर्जनम् । प्रमादपापवर्जनम् । गुणो नियमादात्मोपकारोऽवश्यंभावी। न चैवं मंतव्यं एतदर्थपरिपालनभाव एव ज्यायान्, न त्वेतत्प्रतिपत्तिः । कथम् ? अतिचाररहितपालनभावस्यापि निरतिचारपालनभावस्यापि । तत्प्रसूतेर्गुणव्रतादेवोत्पादात्तथाप्रतिपत्तौ हि तथाप्रतिपन्नं इति ॥२८२॥ इदमतिचाररहितमनुपालनीयमतोऽस्यैवातिचारानभिधित्सुराह
उड्ढमहे तिरियं पि य न पमाणाइक्कम सया कुज्जा ।
तह चेव खित्तवुद्घि कहिंचि सइअंतरद्धं च ।।२८३॥ कारण सर्वत्र-समस्त क्षेत्रमें-प्रमादके कारणोंका अनुसरण करता हुआ क्या पापको नहीं करता है? अवश्य करता है।
विवेचन-जिस प्रकार सन्तप्त लोहेको पानी में डालनेपर सब ओरसे वह पानीके परमाणुओंको खींचता है उसी प्रकार प्रमाद (कषाय) से सन्तप्त प्राणी व्रतसे रहित होनेके कारण उस प्रमादके सामर्थ्यको नष्ट नहीं कर पाता है, जिसके आश्रयसे वह पापाचरण करता है और कर्मको बाँधता है। इसलिए पापाचरणसे बचनेके लिए यहां दिग्वतके ग्रहणकी प्रेरणा की गयी है। इस दिग्वतके स्वीकार कर लेनेपर व्रती श्रावक चूंकि स्वीकृत प्रमाणके बाहर नहीं जाता है, इसीलिए वह वहां अहिंसामहाव्रती जैसा हो जाता है। इसीसे वह जिस प्रकार शीतल लोहपिण्डके जलमें डालनेपर भी वह जलीय परमाणुओंके ग्रहणमें असमर्थ रहता है उसी प्रकार वह दिग्वती श्रावक प्रमादके अभावमें पापप्रवृत्तिसे रहित होता हुआ कर्मबन्धसे रहित होता है ॥२८१।।
___ अब इस दिग्वतसे होनेवाले गुण (उपकार) दिखलाते हुए अतिचाररहित उसके पालनको प्रेरणा की जाती है
आगमोक्त विधिके अनुसार इस व्रतके स्वीकार कर लेनेपर पापके कारणभूत उस प्रमादका जो परिहार हो जाता है, वह नियमसे आत्माका उपकार करनेवाला गुण है। कारण यह कि अतिचाररहित उस व्रतके पालनका परिणाम भी यथाविधि उस व्रतके स्वीकार कर लेनेपर ही उत्पन्न होता है। अभिप्राय यह है कि आगमोक्त विधिके अनुसार जबतक गुरुके समक्ष विवक्षित व्रतको स्वीकार नहीं किया जाता तबतक उसके परिपालनका परिणाम भी स्थिर नहीं रह सकता ।।२८२॥
आगे इस व्रतके निरतिचार परिपालनके लिए उसके अतिचारोंका निर्देश किया जाता है
ऊर्ध्वदिशाप्रमाणातिक्रम, अधोदिशाप्रमाणातिक्रम, तियं ग्दिशाप्रमाणातिक्रम तथा क्षेत्रवृद्धि और किसी भी प्रकारसे स्मृतिके अन्तर्धान इन पाँच अतिचारोंको नहीं करना चाहिए।
१. अत्तथाप्रतिपन्नो हि तत्राप्रतिपन्न ।