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- १५६] सामान्येन प्राणवधविरतो शंका-समाधानम्
१०१ पापोदयसंदिग्धोऽसौ न ात्र निश्चय उपक्रमेण पुण्ये क्षपिते तस्य मोक्ष एव भविष्यति न तु पापोदय इति, एतदाशङ्कयाह-इतरस्मिन् तु दुःखितपापक्षपणे निश्चयः केन यदुत तस्यैवमेवार्थो न पुनरनर्थ इति ॥१५४॥ एतदेव भावयति
दुहिओ वि नरगगामी वहिओ सो अवहिओ बहू अन्ने ।
वहिऊण न गच्छिज्जा कयाइ ता कह न संदेहो ॥१५५॥ दुःखितोऽपि मत्स्यबन्धादिर्नरकगामी हतः सन् कदाचित्स्यादिति योगः, नरकसंवर्तनीयस्य कर्मणः आसकलनसभवात्, वेद्यमानोपक्रमे च तदुदयप्रसङ्गात् । स एवाहतोऽव्यापादितः सन् बहूनन्यान् दुःखितान् हत्वा त्वन्मतेनैव पापक्षयान्न गच्छेत् कदाचित् । यस्मादेवं तस्मात्कथं न संदेहः ? दुःखितपापक्षपणेऽपि संदेह एवेति ॥१५५॥ अधुना प्रागुपन्यस्तं नारकन्यायमधिकृत्याह
नेरइयाण वि तह देहवेयणातिसयभावओ पायं ।
नाईवसंकिलेसो समोहयाणं व विन्नेओ ॥१५६॥ नारकानामप्युदाहरणतयोपन्यस्तानाम् । तथा तेन प्रकारेण नरकवेदनीयकर्मोदयजनितेन । देहवेदनातिशयभावतः शरीरवेदनायास्तोवभावेन । प्रायो बाहुल्येन । नातोवसंक्लेशः क्रूरादि. पुण्यका उपक्रम करानेपर उसके मोक्ष ही होगा और पापका उदय नहीं होगा, यह सन्देहापन्न है, अतः पुण्यका उपाकम कराना उचित नहीं है। इस प्रकार वादोके कहनेपर उत्तरमें यह भी कहा जा सकता है कि दुखी जीवोंके पापका उपक्रम करानेपर भविष्यमें उनके पापका उदय न होकर पुण्यका ही उदय होगा, जिससे वे दुखी न होकर सुखो ही होंगे, इसका निश्चय भी कैसे किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता है। अतः वध करके उपक्रम द्वारा उनके पापका क्षय कराना भी युक्तिसंगत नहीं है ॥१५४॥
इसे ही आगे स्पष्ट किया जाता है--
दुखी जीव-मछलियोंके घातक धीवर आदि-भी मारे जाकर कदाचित् नरकगामी हो सकते हैं तथा इसके विपरीत वे न मारे जाकर-जीवित रहते हुए-आपके मतानुसार अन्य बहुतसे जीवोंका वध करके कदाचित् पापका क्षय हो जाने से नरकमें न भी जायें। इस परिस्थिति. में दुखी जीवोंके पापक्षयमें कैसे सन्देह नहीं है ? उसके विषय में भी वह सन्देह तदवस्थ है ।।१५५।।
आगे वादीने जिस नारकन्यायके अनुसार दुखी जीवोंके वधको उचित बतलाया था उस नारकन्यायके सम्बन्धमें विचार किया जाता है
नारकी जीवोंके भी उस प्रकारसे-नरकमें वेदनके योग्य कर्मके उदयसे-जो अतिशय तीव शारीरिक वेदना होतो है उसके निमित्तसे वेदनासमुद्घातको अथवा मूर्छाको प्राप्त जीवोंके समान प्रायः अत्यन्त संक्लेश नहीं होता है, ऐसा जानना चाहिए।
विवेचन-वादीने पूर्वमें ( ३५-३८ ) नारकियोंका उदाहरण देते हुए दुखी जीवोंके वधसे उनके पाप कर्मका क्षय होता है, इस अपने अभिमतको पुष्ट किया था। उसे दूषित करते हुए यहाँ यह कहा गया है कि नारको जोवोंको भी प्रायः अतिशय तीव्र शरीरको वेदनासे अभिभूत होनेके मूर्छाको प्राप्त हुए जीवोंके समान अन्तःकरणके व्यापारसे रहित हो जानेके कारण अतिशय
१. भ पुनरर्थ ।