________________
१००
श्रावकप्रज्ञप्तिः
[१५३ - ___ अथैवं मन्यसे-तत्पुण्यं स्वयमेव तक आत्मनैवासौ सुखितः। क्षपयत्यनुभवेनैव वेदयतीत्येतदाशङ्कयाह-इतरदपि पापं कि न एवमेव किं न स्वयमेव दुःखितः क्षपयति, क्षपयत्येवेत्यर्थः । अथैवं मन्यसे-कालेन प्रदीर्घण क्षपयत्येव, नानान्यथाभावः। उपक्रमः क्रियते वधेन तस्यैव प्रदीर्घकालवेद्यस्य पापस्य स्वल्पकालवेद्यत्वमापाद्यते व्यापत्तिकरणेनेति ॥१५२॥ एतदाशङ्कयाह
इयरस्स किं न कीरइ सुहीण भोगंगसाहणेणेवं ।
न गुण त्ति तंमि खविए सुहभावो चेव तत्तुत्तिं ॥१५३॥ इतरस्येति पुण्यस्य । किन क्रियते उपक्रमः ? सुखिना भोगाङ्गसाधनेन काश्मीरादेः कुंकुमादिसंपादनेन ? अथैवं मन्यसे-एवमुपक्रमद्वारेण न गुण इति तस्मिन् पुण्ये क्षपिते। कुतः ? सुखभावादेव तत् इति ततः पुण्यात्सुखस्यैव प्रादुर्भावादिति ॥१५३॥ एतदाशङ्कयाह
निरुवमसुक्खो मुक्खो न य सइ पुन्ने तओ त्ति किं न गुणो ।
पावोदयसंदिद्धो इयराम उ निच्छओ केण ॥१५४॥ निरुपमसौख्यो मोक्षः, सँकलाबाधानिवृत्तरुभयसिद्धत्वात् । न च सति पुण्ये तकोऽसौ, पुण्यक्षयनिमित्तत्वात्तस्य । इति एवं कथ न गुणः ? पुण्योपक्रमकरणे गुण एव । अथैवं मन्यसे
सुखी जीवोंके पुण्यक्षयके विषय में वादों के अभिमतको दिखलाते हुए उसका निराकरण
सुखी जीव उस पुण्यको स्वयं ही क्षीण करता है, अर्थात् सुखोपभोगपूर्वक वह उस पुण्यका क्षय स्वयं करता है, अतः उसके लिए उसका वध अनावश्यक है, ऐसा यदि वादीका अभिमत है तो उसके उत्तरमें यह भी कहा जा सकता है कि इसी प्रकारसे दुखो जीव भी अपने पापको दुःखोपभोगपूर्वक क्यों नहीं स्वयं क्षीण कर दे ? इसपर यदि वादी यह कहे कि वह उस पापको क्षीण तो करता ही है, पर उसे वह दीर्घकालमें क्षीण कर पावेगा, जब कि वधके द्वारा उसका उपक्रम किया जाता है-दीर्घकालमें भोगने योग्य उसे अल्पकालमें भोगने योग्य कर दिया जाता है । इससे दुखी जीवोंके वधका परित्याग कराना उचित नहीं है, किन्तु सुखी जीवोंके वधका परित्याग कराना उचित है । इस प्रकार वादीने अपने अभिमतको व्यक्त किया है ॥१५२।।
वादीके इस अभिमतका निराकरण व उसपर वादीकी पुनः आशंका___ इसके उत्तरमें यहां कहा गया है कि सखो जीवोंके भोगोपभोगके साधनभत कश्मोरी कूकम आदिको सम्पादित कराकर उनके पुण्यका भी उपक्रम क्यों नहीं कराया जाता? इसपर वादीका कहना है कि उससे-उपक्रम द्वारा पुण्यका क्षय करानेसे-कुछ लाभ नहीं है, क्योकि उस पुण्यसे उनको सुखकी ही प्राप्ति होनेवाली है, अतः दुखी जावोंके पापका उपक्रम कराना ही उचित है, न कि सुखी जीवोंके पुण्यका उपक्रम कराना ॥१५३॥ ___ आगे वादीकी इस शंकाका समाधान किया जाता है
मोक्ष अनुपम सुखसे संयुक्त है, वह पुण्यके रहते हुए सम्भव नहीं है, इस प्रकार उपक्रम द्वारा उस पुण्यका क्षय करानेमे लाभ क्यों नहीं है ? मोक्ष प्राप्त करा देना ही उसका बड़ा लाभ है। इसपर वादो यदि यह कहे कि पुण्यका उपक्रम करनेपर वह पापके उदयसे सन्दिग्ध है, अर्थात् १. अ किन्न एवमेव दुःखितः पयत्येवेत्यर्थः । २. अ वेद्यकालस्य स्वल्पं । ३. अ गुणो। ४. अ तत्तो -ति । ५. भ सोक्खो मोक्खो ण य सति । ६. असंदिरो। ७. म सकलावधा। ८. अनेव सति ।