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श्रावकप्रज्ञप्तिः
इसके अतिरिक्त प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति की गाथा १२२ का उत्तरार्ध भी आप्तमीमांसा की उक्त कारिका ६० से प्रभावित है।
2-कहीं वे प्रकारान्तर से यह भी कहते हैं कि अमुक विषय को मैं सूत्रनीति-श्रुत या परमागम के अनुसार कहूँगा।
3-कहीं वे अपनी प्रामाणिकता व निरभिमानता को व्यक्त करते हुए यह कहते हैं कि यदि यहाँ मेरे द्वारा अज्ञानता के वश कुछ आगमविरुद्ध व्याख्यान किया गया हो तो बहुश्रुत विद्वान् क्षमा करें।
ये दोनों (२-३) विशेषताएँ भी प्रकृत श्रावकप्रज्ञप्ति की अन्तिम (४०१) गाथा में प्रकट हैं।
४-प्रकृत श्रावकप्रज्ञप्ति में ऐसी बीसों गाथाएँ हैं जो हरिभद्र सूरि द्वारा विरचित अन्य ग्रन्थों में प्रायः उसी क्रम से उपलब्ध होती हैं। जैसे-धर्मसंग्रहणि, पंचाशकप्रकरण, समराइच्चकहा और श्रावकधर्मप्रकरण आदि। इसका विशेष स्पष्टीकरण आगे उन-उन ग्रन्थों के साथ श्रावकप्रज्ञप्ति की तुलना करते हुए किया जानेवाला है, अतः जिज्ञासु जन वहीं पर उसे देख लें।
५-हरिभद्र सूरि विरचित पंचाशक प्रकरण की टीका में अभयदेव सूरि (१२वीं शती) ने 'पूज्यैरेवोक्तम्' ऐसा निर्देश करते हुए प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति की ‘संपत्तदसणाई' इत्यादि गाथा (२) को उद्धृत किया है। इससे यही प्रतीत होता है कि अभयदेव सूरि इसे हरिभद्रसूरि विरचित मानते रहे हैं।
यहाँ यह आशंका हो सकती है कि हरिभद्र सूरि के द्वारा रचे गये ग्रन्थों के अन्त में किसी न किसी रूप में 'विरह' शब्द का उपयोग किया गया है जो इस श्रावकप्रज्ञप्ति में नहीं देखा जाता है। इसके समाधान में यह कहा जा सकता है कि यद्यपि हरिभद्र सूरि के अधिकांश ग्रन्थों में उक्त 'विरह' शब् अवश्य पाया जाता है, फिर भी उनके 'योगविंशिका' आदि ऐसे भी ग्रन्थ हैं जहाँ उस 'विरह' शब्द का उपयोग हुआ भी नहीं है।
इन कारणों से यही प्रतीत होता है कि प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति स्वयं हरिभद्र सूरि के द्वारा स्वोपज्ञ टीका के साथ रची गयी है। उसके ऊपर जो संस्कृत टीका की गयी है वह हरिभद्र सूरि के द्वारा की गयी है, यह निर्विवाद सिद्ध है।
इसमें यदि कुछ शंकास्पद है तो वह यह है कि प्रकृत श्रावकप्रज्ञप्ति की टीका में हरिभद्र सूरि ने ग्रन्थकर्ता के लिए कहीं-कहीं 'तत्र चादावेवाचार्यः' (गाथा १ की उत्थानिका) 'इत्ययमप्याचार्यो न हि न शिष्टः' (गाथा १ की टीका), 'अवयवार्थं तु महता प्रपञ्चेन ग्रन्थकार एव वक्ष्यति' (गाथा ६ की टीका), 'भावार्थं तु स्वयमेव वक्ष्यति' (गाथा ६५ की टीका) तथा 'एतत् सर्वमेव प्रतिद्वारं स्वयमेव वक्ष्यति ग्रन्थकारः' ( २९५ की टीका) जैसे प्रथम पुरुष के सूचक पदों का प्रयोग क्यों किया, जब कि वे स्वयं मूल ग्रन्थ के भी निर्माता थे। इनके स्थान में कहीं पर वे ऐसे शब्दों का भी उपयोग कर सकते थे कि जिससे ऐसा प्रतीत होता कि वे स्वयं अपने द्वारा निर्मित ग्रन्थ पर टीका कर रहे हैं। पर इसमें कोई विशेष विरोध
१. खीरविगइपच्चक्खाणे दहियपरिभोगकिरियव्व ॥ २. पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः। ___ अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥ ३. देखिए पंचाशक गाथा १, ४४५, ६६५, ८४७ और ८९७ तथा षोडशक १६-१६। ४. यदिहोत्सूत्रमज्ञानाद् व्याख्यातं तद् बहुश्रुतैः।
क्षन्तव्यं कस्य संमोहश्छद्मस्थस्य न जायते ॥-नन्दीसूत्रवृत्ति (समाप्ति १)