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प्रस्तावना
पंचेव अणुव्वयाइं गुणव्वयाई च हुंति तिन्नेव।
सिक्खावयाई चउरो सावगधम्मो दुवालसहा ॥६॥ ५. गाथा ३३४ में 'ता कह निज्जुत्तीए' इस प्रकार से आचार्य भद्रबाहु द्वितीय (५-६ठी शती) विरचित नियुक्ति का उल्लेख किया गया है जो कि वाचक उमास्वाति के बाद की रचना है।
६. उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय में, जहाँ कि श्रावकाचार की प्ररूपणा की गयी है, श्रावक प्रतिमाओं का कोई निर्देश नहीं किया, जब कि श्रावकप्रज्ञप्ति (३७६) में उनका विशेष करणीय के रूप में उल्लेख किया गया है।
७. उमास्वाति के समक्ष संलेखना के विषय में कुछ मतभेद रहा नहीं दिखता-वहाँ (७-१७) उसे श्रावक के द्वारा ही अनुष्ठेय सूचित किया गया है, जब कि श्रावकप्रज्ञप्ति (३८२-३८४) में तद्विषयक मतभेद देखा जाता है। इस मतभेदस्वरूप वहाँ उस संलेखना में साधु अधिकृत है यह भाव प्रकट किया गया है। ___इन बाधक कारणों को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति वाचक उमास्वाति के द्वारा रची गयी है। इसके विपरीत कुछ ऐसे कारण हैं, जिनसे ऐसा प्रतीत होता है कि वह स्वोपज्ञ टीका के साथ स्वयं हरिभद्र सूरि के द्वारा रची गयी है। वे कारण इस प्रकार हैं
१-हरिभद्र सूरि की प्रायः यह पद्धति रही है कि वे अभीष्ट ग्रन्थ की रचना के पूर्व में यह अभिप्राय व्यक्त करते हैं कि मैं अमुक ग्रन्थ को गुरु के उपदेशानुसार रचता हूँ।'
तदनुसार प्रकृत श्रावकप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में (गाथा १) भी यही अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि मैं यहाँ बारह प्रकार के श्रावकधर्म को गुरु के उपदेशानसार कहँगा।
इसके अतिरिक्त हिंसाजनक होने से जिनपूजा का निषेध करनेवालों के अभिमत, जो उन्होंने निराकरण किया है, वह गुरु के आश्रय से किया है। यथा
आह गुरू पूयाए कायवहो होइ जइ वि जिणाणं।
तह वि तई कायव्वा परिणामविसुद्धि हेऊओ ॥ ३४६ ॥ पूर्व गाथा ३४५ के साथ यह गाथा समन्तभद्र विरचित स्वयम्भूस्तोत्र के इस पद्य से कितनी प्रभावित है, यह भी ध्यान देने योग्य है। उससे इसका मिलान कीजिए
पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ।
दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ ॥ ५८॥ हरिभद्र सूरि समन्तभद्र के बाद हुए हैं। वा. उमास्वाति के ऊपर समन्तभद्र का कुछ प्रभाव रहा हो, यह कहना शक्य नहीं दिखता। पर हरिभद्र सूरि के ऊपर उनका प्रभाव अवश्य रहा है-उनके शास्त्रवार्तासमुच्चय के ७वें स्तव में जो २ और ३ संख्या के अन्तर्गत दो कारिकाएँ हैं वे स्वामी समन्तभद्र की आप्तमीमांसा (५६-६० ) से वहाँ आत्मसात् की गयी हैं।
१. सपरुवगास्ट्ठाए जिणवयणं गुरूवदेसतो णाउं। वोच्छामि समासेणं पयडत्थं धम्मसंगहणिं ॥-ध. सं. ३ णमिऊण महावीरं जिणपूजाए विहिं पवक्खामि।
संखेवओ महत्थं गुरूवएसाणुसारेणं।।-पंचाशक १४५ पंचाशक में आगे २९५, ५९५ और ६४५ गाथाओं द्वारा भी यही भाव प्रकट किया गया है।