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श्रावक प्रज्ञप्तिः
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दोषः तथाविधाणुव्रतरूपाध्यवसाये सत्येव गुरुसंनिधौ तत्प्रतिपत्त्यभ्युपगमे उभयोराचार्यशिष्योर्मुधाव्यापारदोषः । स च निरर्थको मोहलिंग एव न हि अमूढस्य प्रयोजनमन्तरेण प्रवृत्तिरिति ॥ १०९ ॥ द्वितीयं विकल्पमुररीकृत्याह -
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दुहवि' मुसावाओ तयभावे पालणस्स वि अभावो ।
न य परिणामेण विणा इच्छिज्जइ पालणं समए ॥ ११० ॥
यदि न देशविरतिपरिणाम एव तर्हि द्वयोरपि प्रतिपत्तप्रतिपादकयोः शिष्याचार्ययोः । मृषावादः शिष्यस्यासदभ्युपगमाद्गुरोश्चासदभिधानादिति । कि च तदभावे देशविरतिपरिणामस्याभावे । पालनस्यापि व्रतसंरक्षणस्याप्यभावः । एतदेव स्पष्टयन्ति न च नैव । परिणामेनान्तरोदितेन । विना इष्यतेऽभ्युपगम्यते । पालनं संरक्षणं, व्रतस्थेति प्रक्रमाद् गम्यते । समये सिद्धान्ते, परमार्थेन तस्यैव व्रतत्वादिति ॥११०॥
एवं पराभिप्रायमाशङ्कय पक्षद्वयेऽप्यदोष इत्यावेदयन्नाह -
समीपमें उसे ग्रहण करना, इस प्रकारकी वह दोनोंकी प्रवृत्ति निरर्थक सिद्ध होनेके साथ अज्ञानताकी भी सूचक है, क्योंकि कोई भी विचारशील व्यक्ति प्रयोजनके बिना किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है ॥१०९॥
आगे शंकाकार दूसरे पक्ष में भी दोषको दिखलाता है
वह कहता है कि यदि स्वीकृत देशविरतिके पालनका उसका परिणाम नहीं है तो शिष्य और गुरु दोनोंके ही असत्यभाषणका प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि उस व्रतके पालनके परिणामके अभाव में उसका पालन करना सम्भव नहीं है । आगम में भी परिणामके बिना व्रतका पालन स्वीकार नहीं किया गया है ।
विवेचन - व्रत के इच्छुक श्रावकके उसके पालनका परिणाम है या नहीं, उन दो विकल्पोंमें से प्रथम विकल्प में गुरुको समोपताको शंकाकार निरर्थक बता चुका है । अब दूसरे विकल्पमें भी दोषको दिखलाते हुए वह कहता है कि यदि व्रतके पालनका परिणाम नहीं है तो गुरुके समीप में व्रत ग्रहण करनेपर उन दोनोंके असत्यवादका प्रसंग प्राप्त होता है । कारण यह कि उस देशविरति व्रत परिणामके विना ही जब शिष्य उसे ग्रहण कर रहा है तब स्पष्ट हो उसका वह आचरण असत्यता से परिपूर्ण है । साथ ही व्रतपालनका परिणाम न होनेपर भी गुरु जो उसे व्रत दे रहा है, यह उसका भी प्रकटमें असत्य आचरण है। इसके अतिरिक्त जब शिष्यके उस व्रत पालनका परिणाम ही नहीं है तब वह उसका पालन भी क्यों करेगा ? नहीं करेगा । आगम में भी परिणामके बिना व्रतका ग्रहण करना व कराना स्वीकार नहीं किया गया। इस प्रकार व्रतको ग्रहण करनेवाले श्रावकके चाहे उसके पालनका परिणाम हो भी और चाहे वह न भी हो, दोनों ही अवस्था में गुरुको समीपता निरर्थक सिद्ध होती है । इस प्रकारसे शंकाकारने गुरुके समीप व्रत ग्रहणकी निरर्थकताको सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है ॥ ११० ॥
अब शंकाकारके द्वारा उभय पक्षमें दिये गये दोषोंका निराकरण करते हुए गुरुकी समीपताका प्रयोजन बतलाते हैं
१. अ दोहवि । २. अ ण परिं ।