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- १०९] देशविरतिपरिणामविषये शंका-समाधानम्
७७ यति संकल्पतः परिहरति असौ श्रावकः प्राणवधं' संकल्पेन, न त्वारम्भतोऽपि, तत्र नियमात् प्रवृत्तेः। विधिना प्रवचनोक्तेन वर्जयति, न तु यथाकथंचिदिति ॥१०७॥ स चायं विधिः
___ उवउत्तो गुरुमूले संविग्गो इत्तरं व इयरं वा।
अणुदियहमणसरंतो पालेइ विसुद्ध परिणामो ॥१०८॥ उपयुक्तोऽन्तःकरणेन समाहितः। गुरुमूले आचार्यसन्निधौ। संविग्नो मोक्षसुखाभिलाषी न त रिद्धिकामः। इत्वरं चातुर्मासादिकालावधिना। इतरता यावत्कथिकमेव । प्राणवधं वर्जयतीति वर्तते । एवं वर्जयित्वानुदिवसमनुस्मरन्, स्मृतिमूलो धर्म इति कृत्वा । पालयति विशुद्धपरिणामः, न पुनस्तत्र चेतसापि प्रवतंत इति ॥१०८॥ अत्राह
देसविरइपरिणामे सइ किं गुरुणा फलस्सभावाओ।
उभयपलिमंथदोसो निरत्थओ मोहलिंगं तु ॥१०९॥ ___ इह धावको यदाणुव्रतं प्रतिपद्यते तदास्य देशविरतिपरिणामः स्याद्वा न वा ? किं चात उभयथापि दोषः। तमेवाह । देशविरतिपरिणामे सति । स्वत एव तथाविधाणुव्रतरूपाध्यवसाये सति कि गुरुणा। किमाचार्येण यत्संनिधौ तद्गृह्यते । कुतः ? फलस्याभावात्तत्संनिधावपि । प्रतिपत्तः स एव फललाभः, स च स्वत एव संजात इत्यफलोगुरुमार्गणा। किं च उभयपलिमन्यकरता है । निरन्तर आरम्भमें प्रवृत्त रहनेवाला वह गृहस्थ श्रावक आरम्भसे उसका परित्याग नहीं कर सकता है। प्राणिविघातका जो अभिप्राय रहता है उसका नाम संकल्प है। आरम्भसे अभिप्राय खेती आदि कार्योंका है। इस प्रकार गृहमें स्थित रहते हुए श्रावक उस आरम्भको नहीं छोड़ सकता है, अतः उसके आरम्भजनित हिंसाका होना अनिवार्य है। हां, यह अवश्य है कि आरम्भ कार्यको करते हुए भी वह उसे सावधानीके साथ करता है, तथा निरर्थक आरम्भसे भी बचता है । पर संकल्पपूर्वक वह कभी प्राणिविघात नहीं करता- इस प्रकारसे उसका वह स्थूल प्राणवधविरति अणुव्रत सुरक्षित रहता है ॥१०७।।
अब जिस विधिके साथ व्रतको स्वीकार किया जाता है उस आगमोक्त विधिका निर्देश किया जाता है
व्रतका इच्छुक श्रावक मोक्षसुखकी इच्छासे गुरुके पादमूलमें उपयोगसे युक्त ( सावधान ) होकर नियत काल-चातुर्मास आदि के लिए अथवा जीवन पर्यन्तके लिए स्वीकृत व्रतका प्रतिदिन स्मरण करता हुआ पालन करता है ॥१०८। यहां शंका
व्रतके इच्छुक श्रावकके देशविरति परिणामके होनेपर गुरुसे क्या प्रयोजन है ? कुछ भो नहीं, क्योंकि उसका कुछ फल नहीं है। इसके अतिरिक्त गुरु और शिष्य दोनोंके ही उस व्यर्थ व्यापारका दोष भी होता है, जो निरर्थक व मोहका हेतु है।
विवेचन-यहां शंकाकारका कहना है कि इस प्रथम अणुव्रतके इच्छुक श्रावकके उस देशविरतिके ग्रहणका परिणाम है या नहीं है। यदि है तो फिर आचार्यके समीपमें उसके ग्रहण करनेका क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं, क्योंकि वेसे परिणामके होनेपर गुरुको समीपताके बिना भी वह उसका पालन करनेवाला ही है। इससे गुरुका व्रतको ग्रहण करना और शिष्यका गुरुके
१. अ प्राणिवधं । २. अ प्रवर्तत इत्यताह । ३. अ सति । ४. अ 'चात' नास्ति । ५. अ भावात्सन्निधावपि प्रतिपत्तु स एव संज्ञान इत्यफला।