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________________ ७३ -१०१] सम्यक्त्वातिचारप्ररूपणा नेगेतेणं चिय जे तदुदयमेया' कुणंति ते मिच्छं । तत्तो हुतिइयारा वज्जेयव्वा पयत्तेणं ॥१९॥ नैकान्तेनैव न सर्वथैव । ये तदुदयभेदा ज्ञानावरणाद्युदयप्रकाराः। कुर्वन्ति तान् सम्यक्त्व. पुद्गलान् मिथ्यात्वं, अपि तु भ्रंशनामात्रमेव । ततस्मात् ज्ञानावरणाद्युदयात् । भवन्त्यतिचाराः शङ्कादयः, ते च वर्जयितव्याः प्रयत्नेनेति ॥१९॥ जे नियमवेयणिज्जस्स उदयओ होन्ति, तह कहं ते । वज्जिजंति इह खलु, सुद्धेणं जीवविरिएणं ॥१०॥ स्यादेतत् ये शङ्कादयो नियमवेदनीयस्य ज्ञानावरणादेरुवयतो भवन्ति । तथा तेन प्रकारेण । कथं पुनस्ते वर्जन्ते। इह प्रक्रमे प्रस्तावे खलुशब्दादन्यत्रापि चारित्रादौ तत्कर्मणो अफलत्वप्रसङ्गात्, इति आशङ्कयाह-शुद्धेन जीववीर्येण कथंचित्प्रादुर्भूतेन प्रशस्तेनात्मपरिणामेनेति ॥१००॥ अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह कत्थइ जीवो बलीओ, कत्थइ कम्माइ हुँति बलियाई । जम्हा जंता सिद्धा, चिट्ठति भवंमि वि अणंता ॥१०॥ www wwwwwww आगे उसमें और भी कुछ विशेषता प्रकट की जाती है पूर्वोक्त ज्ञानावरणादिके जो उदयभेद हैं वे उन सम्यक्त्वपुद्गलोंको सर्वथा मिथ्यात्वरूप नहीं करते हैं-सम्यक्त्व स्वभावसे च्युत होनेरूप केवल भ्रंशना मात्र वे करते हैं। इसलिए उनके निमित्तसे वे अतिचार ही होते हैं-सम्यक्त्व नष्ट नहीं होता। अतः प्रयत्नपूर्वक उन अतिचारोंका परित्याग करना चाहिए ॥१९॥ इसपर उपस्थित हुई शंकाको प्रकट कर उसका समाधान किया जाता है जो वे शंकादि अतिचार नियमसे अनुभव करने योग्य उन ज्ञानावरणादि कर्मोंके उदयसे होते हैं उन्हें कैसे छोड़ा जा सकता है ? नहीं छोड़ा जा सकता है। इस शंकाके समाधानमें कहा जा रहा है कि उन्हें शुद्ध जीवके सामर्थ्यसे छोड़ा जा सकता है। - विवेचन-शंकाकारका अभिप्राय है कि जब उन ज्ञानावरणादि कर्मोंके उदयजन्य फलको अवश्य ही भोगना पड़ता है तब उनके उदयसे होनेवाले उन अतिचारोंको कैसे छोड़ा जा सकता है ? नहीं छोड़ा जा सकता है-उन्हें सहना ही पड़ेगा। और यदि बिना अनुभव किये उन्हें छोड़ा जा सकता है तो इस प्रकारसे चारित्र आदिको दूषित करनेवाले कर्मके भी निष्फल होनेका प्रसंग दुनिवार होगा। तब वैसी स्थितिमें उनके परित्यागका यह उपदेश निरर्थक सिद्ध होता है। इस शंकाके समाधानमें यहां यह कहा गया है कि किसी प्रकारसे उत्पन्न हुए जीवके प्रशस्त परिणामसे उन्हें बिना फलानुभवनके भी छोड़ा जा सकता है ॥१००॥ आगे इसीको स्पष्ट किया जाता है यदि कहींपर जीव बलवान् होता है तो कहींपर कर्म भी बलवान् हुआ करते हैं। यही कारण है जो अनन्त जीव मुक्तिको प्राप्त हो चुके हैं और अनन्त जीव संसारमें ही स्थित हैं। १. अ तदुभयभेया। २. अ ए। ३. अ होतइयारा । ४. अ सर्वार्थेव ये तदुभयभेदज्ञाना। ५. अ कहं तेहं. उ । ६. अरुद्भवतो। १०
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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