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________________ ७२ श्रावकप्रज्ञप्तिः [९८ एवं सातिचारे सम्यक्त्वे उक्ते सति पर आह-शुभे परिणामे सम्यक्त्वे सति प्रशमसंवेगादिलक्षणे। प्रतिसमयं समयं समयं प्रति । कर्मक्षपणतः विशिष्टकर्मक्षपणात् मिथ्यादृष्टः सकाशात् सम्यग्दृष्टिविशिष्टकमक्षपणक एवेत्युक्तम् । कथं केन प्रकारेण ? नु इति क्षेपे। भवति तथा संक्लेशो जायते चित्तविभ्रमः। यतोय स्मात्संक्लेशादेते शंकादयोऽतिचारा भवन्ति ततश्चानुत्थानमेवैतेषामिति पराभिप्रायः-अत्र गुरुर्भणति ॥९७॥ नाणावरणादुदया तिव्वविवागा उ भंसा तेसिं । सम्मत्त पुग्गलाणं तहासहावाउ किं न भवे ।।९८॥ ज्ञानावरणाधुदयात् । किविशिष्टात ? तीव्रविपाकात, न तु मंदविपाकात्तस्मिन् सत्यपि अतिचारानपपत्तेः, सम्यग्दनिनामपि मन्दविपाकस्य तस्य उदयात. अतस्तोतानुभावादेव। भ्रंशनां स्व-स्वभावच्युतिरूपा । तेषां सम्यक्त्वपुद्गलानाम् । तथास्वभावत्वान्मिथ्यात्वदलिकत्वात् । जायत इति वाक्यशेषः । अतः किं न भवत्यसौ संक्लेशो यत एतेऽतिचारा भवन्त्येवेत्यभिप्रायः । उक्तं च प्रज्ञापनायां कर्मप्रकृतिपदे बन्धचिन्तायाम् कहनं भंते जीवे अट्टकम्मप्पगडीउ बंधइ ? गोयमा, णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दंशणावरणिज्ज कम्मं नियच्छइ। दंसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदयेणं दंसणमोहणिज्जं कम्सं नियच्छइ । दसणमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छइ। मिच्छत्तेणं उदिन्नेणं एवं खलु जीवे अटुकम्पएगडीउ बंधइत्ति ॥९८॥ तत्र विवेचन-शंकाकारका अभिप्राय यह है कि पूर्व में (गा. ५३-६०) यह स्पष्ट कहा जा चुका है कि सम्यक्त्व यह आत्माका परिणाम है। उसके प्रादुर्भूत होनेपर सम्यग्दृष्टिकी प्रशमसंवेगादिरूप समस्त बाह्य प्रवृत्ति उत्कृष्ट ही होती है। अतः प्रशमादि परिणामस्वरूप उस सम्यक्त्वके होते हुए वैसा संक्लेश हो ही नहीं सकता कि जिसके आश्रयसे वे शंकादि अतिचार सम्भव हो सकें। इतना ही नहीं, उस सम्यक्त्वके प्रभावसे तो मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टिके विशिष्ट कर्मक्षय भी होता है। ऐसी स्थितिमें जब वे अतिचार सम्यग्दृष्टिके सम्भव ही नहीं हैं तब उनके परित्यागकी प्रेरणा करना निरर्थक है ॥१७॥ आगे इस शंकाका समाधान किया जाता है तीव्र विपाकवाले ज्ञानावरणादिके उदयसे उन सम्यक्त्वरूप पुद्गलोंकी भ्रंशना होती हैवे अपने स्वभावसे भ्रष्ट हो जाते हैं, क्योंकि वैसा उनका स्वभाव है। अतएव उस प्रकारका संक्लेश क्या नहीं हो सकता है ? अवश्य हो सकता है। विवेचन-अभिप्राय यह है कि ज्ञानावरणादि कर्मोंका जब तीव्र विपाकसे युक्त उदय होता है तब वे सम्यक्त्वरूप पुद्गल मिथ्यान्वके प्रदेशरूप होनेसे अपने स्वभावसे च्युत हो जाते हैं। अतएव उनसे उक्त अतिचारोंका जनक संक्लेश हो सकता है। हाँ, यह अवश्य है यदि उन ज्ञानावरणादिका उदय मन्द विपाकसे संयुक्त होता है तो उसके होनेपर भी वे सम्यक्त्वपुद्गल अपने स्वभावको नहीं छोड़ते हैं, अतः वेसो अवस्थामें सम्यग्दृष्टि जीवोंके भी उन अतिचारोंकी सम्भावना नहीं रहती। परन्तु उनके तीव्र विपाकोदयमें वैसा संक्लेश सम्भव है, अतः उसके आश्रयसे होनेवाले अतिचारोंका परित्याग कराना उचित हो है ।।९८॥ १. अ यस्मा संक्लेशादयो अतिचारा। २. अ उ तंभणो। ३. भ अतोऽग्रे 'सम्यक्त्वपुद्गलानाम् । तथा' पर्यन्तः पाठस्त्रटितोऽस्ति । ४. अ बंधइ ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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