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श्रावकप्रज्ञप्तिः
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नइत्यनया शंकया हेतुभूतया, अस्यां वा सत्याम् । नियमान्नियमेनावश्यंतया । तवाभिनिवेशः सम्यक्त्वाध्यवसायः, श्रद्धाभावादनुभवसिद्धमेतत् । मो इति पूरणार्थो निपातः । सुक्रिया च शोभना चात्यन्तोपयोगप्रधाना क्रिया च । नश्यति श्रद्धाभावात् । एतदपि अनुभवसिद्धमेव । ततश्च तस्माच्च तत्त्वाभिनिवेश-सुक्रियानाशात् । बन्धदोषः कर्मबन्धापराधः । यस्मादेवं तस्मादेनां शङ्कां विवर्जयेत् । ततश्च मुमुक्षुणा व्यपगतशङ्केन सता मतिदौर्बल्यात्संशयास्पदमपि जिनवचनं सत्यमेव प्रतिपत्तव्यं, सर्वज्ञाभिहितत्वात्तदन्यपदार्थवदिति ॥९०॥
उक्तः पारलौकिको दोषः, अधुनैहलौकिकमाह
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लोग विदिट्ठो संकाए चेव दारुणो दोसो ।
अविसयविसयाए खलु पेयायी उदाहरणं ।। ९१ ।।
इह लोकेऽप्यास्तां तावत्परलोक इति । दृष्ट उपलब्धः । शङ्काया एव सकाशाद् । दारुणो दोषः रौद्रोऽपराधः । किमविशेषणशङ्कायाः । नेत्याह- अविषयविषयायाः खलु । खलुशब्दोऽव- धारणे । अविषयविषयाया एव । अविषयो नाम यत्र शङ्का न कार्यैव ।
पेयापेयावुदाहरणं । तच्चेदम्-जहा एगंमि नगरे एगस्स सेट्ठिस्स दोन्नि पुत्ता लेहसालाए पढन्ति । सिहा' माया मा कोइ मुच्छिही अप्पसागारिए मइमेहाकारि ओसहपेयं देहि । तत्थ परिभुंजमाणो चेव एगो चितेइ णूणं-मच्छियाउ एयाउ । तस्स य संकाउ पुणो पुणो वमंतस्स
विवेचन - सर्वज्ञ व वीतराग जिनेन्द्रके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वके विषय में सन्देहके रहनेपर तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व और अशुभके परिहारपूर्वक शुभ प्रवृत्ति रूप चारित्र भी नष्ट होता है। साथ ही सम्यग्दर्शनके बिना ज्ञानकी यथार्थता भी नष्ट होनेवाली है । इस प्रकार शंका के द्वारा कर्मबन्धके रोधक रत्नत्रयके अभाव में मिथ्यात्व व अविरति आदिके निमित्तसे कर्मका बन्ध अवश्यम्भावी है । यह जो बड़ा अपराध उस शंकाके द्वारा होनेवाला है वह उस शंकाका दोष है । इस प्रकार शंकाको अनर्थ परम्पराका मूल कारण जानकर उसका परित्याग करना श्रेयस्कर है । छद्मस्थ होने से यदि बुद्धिको मन्दतासे किसी सूक्ष्म तत्त्वका निर्धारण नहीं होता है तो यह समझकर कि सर्वज्ञ वीतराग प्रभु अन्यथा व्याख्यान नहीं कर सकते, अत: उनके द्वारा उपदिष्ट वस्तुस्वरूप यथार्थ है, इस प्रकार सन्देहसे रहित होकर उसपर विश्वास करना योग्य है ||१०||
इस प्रकार शंकासे होनेवाले पारलौकिक दोष की सूचना करके अब उसके द्वारा होनेवाले इस लोक सम्बन्धी अहितको दिखलाते हैं—
विषय -- शंकाके अयोग्य विषयको विषय करनेवाली उस शंकाके ही आश्रयसे इस लोकमें भी भयानक दोष देखा गया है। इसके लिए पेय-अपेयका उदाहरण प्रसिद्ध है ।
विवेचन - जो विषय शंकाके योग्य हो उसमें यदि शंका रहती है तो उचित है । किन्तु जो विषय शंकाके योग्य नहीं है या जहां शंका नहीं रहनी चाहिए वहाँ भी यदि वह शंका बनी रहती है तो वह हानिकर ही होती है। इसकी पुष्टि में यहाँ पेय-अपेय का उदाहरण दिया गया है । यथाकिसी एक नगर में एक सेठ रहता था । उसकी पत्नी एक पुत्रको जन्म देकर मरणको प्राप्त हो गयो । तब उसने दूसरा विवाह कर लिया । इस दूसरी पत्नीके भी एक पुत्र हुआ । उसके वे दोनों पुत्र लेखशाला में पढ़ते थे । भोजन के समय पाठशालासे आकर वे दोनों घरके भीतर प्रविष्ट
१. अ पेयापया । २. अ शंकया । ३. अ ' खलु' नास्ति । ४. अ पेयापायावुदाहरणं । ५. असणेहयाए एसि । ६. अमुच्छिही अत्थसोगारिए या मए मेहाकरि ।