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झानरुचिः देहविवेकी, आर्तवर्जितः सुवाचनिकः ।।
गुरु वैयावृत्यकरः, शुध्यति आलोच्य कोऽपि ॥१॥ ज्ञानरुचि, देहविवेकी श्रादि ध्यानथी रहित, सुवाचनिक, ( सारी वाचना थापनार,) 5) गुरुनी सेवा करनार एवो कोइ ( यति) आलोचिने शुद्ध थाय जे. ॥१॥
आलोइउं पडिक्कमणउ, मीसेणउ विवेग उस्सग्गा। __ कोई छेया मूलाय, तहाण वठिय पारंचिए ॥२॥
आलोच्य प्रतिक्रमणत:, मिश्रण विवेकोत्सर्गेच्यः तपोमतिः॥
कोपि बेदात् मूलाच, तथा नवस्थित स्तथा पारांचितः ॥२॥ ___ आलोग्ने प्रतिक्रमण करवाथी, मिश्रणथी, विवेकथी, उत्सर्गथी, तपमा बुद्धि राखवायी, बेदथी, मूळथी, अनवस्थितपणाथी, अने पारांचितथी को शुद्ध थाय ॥२॥
शीलांगादि रथसंग्रह. ॥३०॥
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ए मा संसाररथना चित्रमा आवेली गाथाओना अघरा शब्दोना अर्थ. उदिसि-उर्ध्वदिशिमां । जीवो-जीव
माणी-मानी | सुहहेउ-सुखने माटे अहोदिसि-निची दिशिमा कीव-नपुंशक क्लिव मायी-कपटी
चरिंखदिय-चक्षु इंद्रिय(ना) तिरिय-तिर्छि दिशिमा नारि-नारि, मादा लोभी-लोभी
घाणिदिय-नाक (ना) पुरिस-पुरुष
कोही-क्रोधी | सोइंदिय-श्रोत्र इंद्रिय, कान रसणिदिय-जीभ (ना)