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तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[८२ समाप्ति अनेक प्रकारसे देखी जाती है। मिथ्यादृष्टिके पाँचों ही बन्धके कारण हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यङ मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टिके अविरति आदि चार, संयतासंयतके अविरति प्रमाद कषाय और योग, प्रमत्तसंयतके प्रमाद कषाय और योग, अप्रमत्त आदि सूक्ष्म साम्परायान्त चार गुणस्थानवालोंके कषाय और योग, उपशान्तकषाय क्षीणकषाय और सयोगकेवलीके केवल योग ही बन्धका कारण है । अयोगकेवलीके बन्धहेतु नहीं है। इसी तरह मिथ्यादर्शन आदिके जितने भेदप्रभेद हैं सब प्रत्येक बन्धके हेतु
३२-३३. विरतके भी विकथा कषाय इन्द्रिय निद्रा और प्रणय ये पन्द्रह प्रमादस्थान देखे जाते हैं, अतः प्रमाद और अविरति पृथक्-पृथक् हैं । कषाय कारण हैं और हिंसादि अविरति कार्य, अतः कारणकार्यकी दृष्टिसे कषाय और अविरति भिन्न हैं।
प्रश्न-अमूर्तिक आत्माके जब हाथ आदि नहीं हैं तब वह मूर्त काँका ग्रहण कैसे कर सकता है ? उत्तर-यहाँ 'पहिले आत्मा और बादमें कर्मबन्ध' इस प्रकार सादि व्यवस्था नहीं है, जिससे आत्माके ऐकान्तिक अमूर्त मानने में यह प्रसंग दिया जाय, किन्तु अनादि कार्मण शरीरके सम्बन्ध होनेके कारण गरमलोहेके गोला जैसे पानीको खींचता है उसी तरह कषायसन्तप्त आत्मा कौंको ग्रहण करता है
सकषायत्वाजीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः ॥२॥ जीव सकषाय होनेसे कर्मयोग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है, यही बन्ध है।
१. 'जैसे जठराग्निके अनुसार आहारपाक होता है उसी तरह तीव्र मन्द और मध्यम कषायोंके अनुसार स्थिति और अनुभाग पड़ते हैं। इस तत्त्वकी प्रतिपत्तिके लिए बन्धके कारणोंमें निर्दिष्ट भी कषायका यहाँ पुनः ग्रहण किया है।
६२-३. जीवन-आयु, आयुसहित जीव ही कर्मबन्ध करता है, आयुसे रहित सिद्ध नहीं।
४. 'कर्मणो योग्यान्' इस पृथक विभक्तिसे दो पृथक वाक्योंका ज्ञापन होता है-'कर्मसे जीव सकषाय होता है' और 'कर्मके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है ।' पहिले वाक्यमें 'कर्मणः' शब्द हेतुवाचक है, अर्थात् पूर्वकर्मसे जीव सकषाय होता है, अकर्मकके कषायलेप नहीं होता, जीव और कर्मका अनादि सम्बन्ध है। दूसरे वाक्यमें 'कर्मण' शब्द षष्ठीविभक्तिवाला है अर्थात सकषाय-जीव कर्मोंके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है। अर्थवश विभक्तिका परिणमन हो जाता है।
५. 'कर्म पौद्गलिक है' यह पुद्गल शब्दसे सूचित होता है। वैशेषिकका कर्म अदृष्टको आत्माका गुण मानना उचित नहीं है क्योंकि अमूर्तिक गुण अनुग्रह और उपघात नहीं कर सकता उसी तरह अमूर्तकर्म अमूर्तआत्माके अनुग्रह और उपघातके कारण नहीं हो सकते।
७-१०. आदत्त-ग्रहण करता है, बन्धका अनुभव करता है । तात्पर्य यह कि मिथ्यादर्शन आदिके आवेशसे आईआत्मामें चारों ओरसे योगविशेषसे सूक्ष्म अनन्तप्रदेशी एक क्षेत्रावगाही कर्मयोग्यपुद्गलोंका अविभावात्मक बन्ध हो जाता है। जैसे किसी बर्तनमें अनेक प्रकारके रसवाले बीजफल फूल आदिका मदिरारूपसे परिणमन होता है उसी तरह आत्मामें ही स्थित पुद्गलोंका योग और कषायसे कर्मरूप परिणमन हो जाता है। 'यही बन्ध है, अन्य नहीं' यह सूचना देनेके लिए 'स' शब्द दिया है। इससे गुणगुणिबन्धका तात्पर्य है अदृष्टनामके गुणका आत्मानामक गुणीमें समवायसे सम्बन्ध हो जाना । यदि गुणगुणिबन्ध माना जाता है तो मुक्तिका अभाव हो जायगा; क्योंकि गुणी कभी भी अपने गुण-स्वभावको नहीं छोड़ता। यदि स्वभाबको छोड़ दे तो गुणीका ही अभाव हो जायगा । तात्पर्य यह कि मुक्तका ही अभाव हो जायना ।
११. बन्धशब्द करणादि साधन है। 'बध्यतेऽनेन-बँधता है जिनके द्वारा ऐसी करणसाधन विवक्षामें मिथ्यादर्शन आदिको बँध कहते हैं। यद्यपि मिथ्यादर्शन आदि बन्धके