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________________ ८१] आठवाँ अध्याय भी हिंसादोषके भागी हैं । शुभपरिणामोंसे पुण्य और अशुभपरिणामोंसे पापबन्ध नियत है, उसमें हेरफेर नहीं हो सकता । यदि हेरफेर किया जायगा तो असंचेतित कर्मबन्ध होनेसे बन्धमोक्षप्रक्रियाका ही अभाव हो जायगा। २७. 'स्वर्गकामी अग्निहोत्र यज्ञ करें इस अग्निहोत्र क्रियाका कर्ता भौतिक पिंड होगा या पुरुष ? भौतिक पिण्ड तो घटादिकी तरह अचेतन है अतः उसमें पुण्य-पाप क्रियाका अनुभव नहीं हो सकता और इसीलिए वह कर्ता नहीं हो सकता। पुरुष यदि क्षणिक है; तो उसमें मन्त्रार्थका अनुस्मरण उनके प्रयोगका अनुचिन्तन आदि अनुसन्धान न हो सकनेके कारण कर्तृत्व नहीं बन सकता। यदि पुरुष नित्य है; तो उसमें पूर्व और उत्तरकालमें कोई परिणमन नहीं होगा, इसलिए वह जैसेका तैसा रहनेसे कर्ता नहीं बन सकता। इस तरह कर्ता न होनेसे किसको क्रियाका फल मिलेगा ? ____ "जो कुछ हो चुका और आगे होगा वह सब पुरुष रूप है-ब्रह्मरूप है" इस एक ब्रह्मवादमें 'यह वध्य है और यह वधक' यह भेद नहीं हो सकता। चेतनशक्ति (ब्रह्म) का ही परिणाम यदि माना जाता है तो घट पट आदि दृश्य जगत्का लोप हो जायगा। प्रमाण और प्रमाणाभासका भेद भी नहीं रहेगा, क्योंकि यह भेद बाह्यपदार्थकी प्राप्ति और अप्राप्तिपर निर्भर है। निर्विकल्प पुरुषतत्त्वकी कल्पनामें 'निर्विकल्प है' यह विकल्प यदि होता है तो वह निर्विकल्प कैसा ? यदि नहीं होता तो 'निर्विकल्प न होने से' वह सविकल्प ही हो जायगातब प्रतिज्ञाविरोध दोष होता है। इस तरह अनेक दोषयुक्त होनेसे वैदिक वचन प्रमाण नहीं कहे जा सकते। इस प्रकार परोपदेशनिमित्तक मिथ्यादर्शनके अन्य भी संख्यात विकल्प होते हैं । इसके परिणामों और अनुभागकी दृष्टिसे असंख्य और अनन्त भी भेद होते हैं। नैसर्गिक मिथ्यादर्शन भी एकन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय असंज्ञी पंचेन्द्रिय संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच म्लेच्छ शवर और पुलिन्द आदि स्वामियोंके भेदसे अनेक प्रकारका है। २८. अथवा, एकान्त विपरीत संशय वैनयिक और आज्ञानिकके भेदसे मिथ्यादर्शन पाँच प्रकारका है । 'यह ऐसा ही है। इस तरह धर्मी या धर्मके विषयमें एकान्त अभिप्राय रखना एकान्त मिथ्यात्व है। जैसे 'यह सब ब्रह्मरूप ही है, नित्य ही है, अनित्य ही है' आदि । 'सपरिग्रह भी निम्रन्थ हो सकता है, केवली कवलाहारी है, स्त्री मुक्त हो सकती है' आदि विपरीत अभिप्राय विपरीत मिथ्यात्व है । 'सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र मोक्षमार्ग हो सकते हैं या नहीं इस प्रकार दोलित चित्तवृत्ति संशयमिथ्यात्व है। सभी देवताओं और सभी शास्त्रोंमें बिना विवेकके समानभाव रखना वैनयिक मिथ्यात्व है। हित और अहितकी परीक्षाकी असामर्थ्य आज्ञानिक मिथ्यात्व है। २९. पृथिवी जल अग्नि वायु वनस्पति और त्रसकायका हनन तथा स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु श्रोत्र और मनविषयक असंयम, इस प्रकार बारह प्रकारकी अविरति होती है। सोलह कषाय और नौ नोकषाय ये पच्चीस कषाय है। सत्य असत्य उभय और अनुभय ये चार मनोयोग, चार सत्य असत्य आदि वचनयोग तथा औदारिक औदारिकमिश्र आदि पाँच काययोग ये तेरह प्रकारके योग हैं । प्रमत्तसंयतमें आहारक और आहारकमिश्रकी भी सम्भावना है, अतः कुल पन्द्रह योग होते हैं। ३०. भाव काय विनय ईर्यापथ भैक्ष्य शयन आसन प्रतिष्ठापन और वाक्यशद्धि इन आठ शुद्धियों तथा उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव शौच सत्य तप त्याग आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दस धर्मों में अनुत्साह या अनादरके भाव होना प्रमाद है। इस तरह यह प्रमाद अनेक प्रकारका है। ३१. मिथ्यादर्शन आदि समुदित और पृथक् पृथक भी बन्धके हेतु होते हैं । वाक्यकी
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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