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आठवाँ अध्याय बन्ध-चेतन और अचेतन द्रव्योंके परिणमनरूप है। यद्यपि बन्ध नाम स्थापना आदिके भेदसे चार प्रकारका है पर उसके मुख्यतः द्रव्यबन्ध और भावबन्ध ये दो भेद हैं। लाख और काष्ठ, रस्सी बेड़ी आदिके भेदसे द्रव्यबन्ध बहुत प्रकारका है। भावबन्ध कर्मबन्ध और नोकर्मबन्धके भेदसे दो प्रकारका है। माता पिता पुत्र आदिका स्नेहबन्ध नोकर्मबन्ध है। कर्मबन्ध सन्ततिकी अपेक्षा बीज और अंकुरको सन्ततिकी तरह अनादि होकर भी उन उन हेतुओंसे बँधनेके कारण आदिमान भी है। अब उन बन्ध हेतुओंको बताते हैं जिनसे बन्ध होता है, क्योंकि यदि बन्ध बिना हेतुओंके माना जाता है तो कभी भी मोक्ष नहीं हो सकेगा। कार्य और कारणमें पहिले कारणोंका निर्देश करना उचित भी है। छठवें और सातवें अध्यायमें जिनका विस्तारसे वर्णन किया जा चुका है वे बन्धनके हेतु ये हैं
मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥१॥ मिथ्यादर्शन अविरति प्रमाद कषाय और योग ये बन्धके हेतु हैं।
६१-५. पञ्चीस क्रियाओंमें आई हुई मिथ्यात्वक्रियामें मिथ्यादर्शन अन्तर्भूत है। अविरतिका व्याख्यान 'इन्द्रियकषायावत' इसी सूत्र में किया गया है। आज्ञाव्यापादन क्रिया और अनाकांक्ष क्रियामें प्रमादका अन्तर्भाव है । प्रमादका अर्थ है-कुशल क्रियाओंमें अनादर अर्थात् मनको नहीं लगाना । क्रोधादि कषायों तथा मन वचन और काय बोगोंका वर्णन पहिले किया जा चुका है।
६-१२. नैसर्गिक और परोपदेशके भेदसे मिथ्यादर्शन दो प्रकारका है। परोपदेशके बिना मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जो तत्त्वार्थ-अश्रद्धान उत्पन्न होता है वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है। परोपदेशसे होनेवाला मिथ्यादर्शन क्रियावादीमत अक्रियावादीमत आज्ञानिकमत और वैनयिकमतके भेदसे चार प्रकारका है। कौक्कल काण्ठेविद्धि कौशिक हरि आदिके मतोंकी अपेक्षा ८४ क्रियावाद होते हैं। मरीचिकुमार उलूक कपिल गार्य आदि दर्शनोंके भेदसे १८० अक्रियावाद हैं। साकल्य वाष्कल कुथुमि सात्यमुनि चारायण काठमाध्यन्दिनी मोद पैप्पलाद बादरायण स्विष्ठिकृदैतिकायन वसु जैमिनि आदि मतोंके भेदसे ६७ अज्ञानवाद हैं। वशिष्ठ पाराशर जतुकर्ण आदि मतोंके भेदसे वैनयिक ३२ होते हैं। इस तरह कुल ३६३ मिथ्या मतवाद हैं।
१३-१४. प्रश्न-बादरायण वसु जैमिनि आदि तो वेदविहित क्रियाओंका अनुष्ठान करते हैं, ये आज्ञानिक कैसे हो सकते हैं ? उत्तर-इनने प्राणिवधको धर्मका साधन माना है। प्राणिवध तो पापका ही साधन हो सकता है, धर्मका नहीं। कर्ताके दोषोंकी संभावनासे रहित अपौरुषेय आगमसे प्राणिवधको धर्महेतु सिद्ध करना उचित नहीं है ; क्योंकि आगम समस्त प्राणियोंके हितका अनुशासन करता है । हिंसाका विधान करनेवाले वचन जिसमें हों वह ठगोंके वचनकी तरह आगम ही नहीं हो सकता। फिर, वेदमें ही कहीं हिंसा और कहीं अहिंसाका परस्पर विरोधी कथन मिलता है, वह स्वयं अनवस्थित है। जैसे 'पुनर्वसु पहिला है और पुष्य पहिला है' ये वचन परस्परविरोधी होनेसे अप्रमाण हैं उसी तरह 'पशुवधसे समस्त इष्ट पदार्थ मिलते हैं, यज्ञ विभूतिके लिए हैं अतः यज्ञमें होनेवाला वध अवध है' इस प्रकार एक जगह पशुवधका विधान करनेवाले वचन और दूसरी जगह 'अज-जिनमें अंकुरको उत्पन्न करनेकी शक्ति न हो ऐसे तीनवर्ष पुराने बीजोंसे पिष्टमय बलिपशु बनाकर यज्ञ करना चाहिए ये अहिं.