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७४२ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[७३९ ६. जिस प्रकार भूमि बीज आदि कारणोंमें गुणवत्ता होनेसे विशेष फलोत्पत्ति देखी जाती है उसी तरह विधिविशेष आदिसे दानके फलमें विशेषता होती है।
७-८. यदि सभी पदार्थोंको निरात्मक माना जाता है तो विधि आदिकी विशेषता नहीं बन सकती । जब ज्ञान क्षणिक है तब 'तप स्वाध्याय और ध्यानमें परायण यह ऋषि मेरा उपकार करेगा, इसे दिया गया दान व्रतशील भावना आदिकी वृद्धि करेगा, इसकी यह विधि है' इस प्रकार अनुसन्धान-प्रत्यभिज्ञान ही नहीं हो सकता; क्योंकि पूर्वोत्तरक्षणविषयक ज्ञान संस्कार आदिका ग्राहक एकज्ञान नहीं है । अतः इस पक्षमें दानविधि नहीं बन सकती।
६९-१०. जो वादी आत्माको अकारण होनेसे नित्य, ज्ञानदर्शनादि गुणोंसे भिन्न होनेके कारण अज्ञ, सर्वगत होनेसे निष्क्रिय आदि मानते हैं; उनके यहाँ भी दानविधि आदि नहीं बन सकती ; क्योंकि ऐसी आत्मामें कोई विकार-परिवर्तनकी सम्भावना नहीं है। समवायसे क्रियागुण आदिका सम्बन्ध माननेपर भी जबतक स्वयं वैसा परिणमन न होगा तबतक दानादि विधि नहीं बन सकतीं। जिस प्रकार दण्डका सम्बन्ध होनेपर भी देवदत्तमें दण्डरूप परिणमन नहीं होता उसमें दण्डस्वभाव नहीं आता उसी तरह क्रिया गुण आदिके समवायसे भी आत्मामें क्रिया और गुणस्वभावता नहीं आ सकेगी। ऐसी दशामें दानादिविधि नहीं बन सकती।
११. 'महान् अहंकार आदि चौबीस प्रकारका अचेतन क्षेत्र है और क्षेत्रज्ञ पुरुषचेतन है' इस सांख्यदर्शनमें भी क्षेत्रभूत प्रकृति जब अचेतन है तो उसे घटादिकी तरह विधि आदिका प्रतिसन्धान नहीं हो सकता। यदि प्रतिसन्धान होता है तो अचेतन नहीं कह सकते। क्षेत्रज्ञ पुरुष तो नित्य शुद्ध और निष्क्रिय है अतः उसे भी दानादिकी विधिका अनुसन्धान नहीं हो सकता।
१२. अनेकान्तवादी जैनदर्शनमें द्रव्यदृष्टिसे नित्य और पर्यायदृष्टिसे अनित्य आत्मामें विधिविशेष आदिका अनुसन्धान आदि सभी बन जाते हैं।
सातवाँ अध्याय समाप्त