________________
७१६ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार
[६।११ आदिकी कल्पना भी ठीक नहीं है क्योंकि निष्क्रिय द्रव्यके धर्म और अधर्मकी उत्पत्ति नहीं हो सकती और न उसके कर्मफलका अनुभव ही हो सकता है।
६११. ये दुःखादि क्रोधादिके आवेशके कारण आत्मा पर और उभयमें होते हैं। जब क्रोधादिसे आविष्ट आत्मा अपनेमें दुःख आदि उत्पन्न करता है तब वे आत्मस्थ होते हैं और जब समर्थ व्यक्ति परमें दुख आदि उत्पन्न करता है तब वे परस्थ होते हैं और जब साहुकार कर्जदारसे ऋण वसूल करने जाते हैं तब दोनोंको ही भूख-प्यास आदिके कारण दुःख आदि होते हैं तब ये उभयस्थ होते हैं।
१२-१३. विद्, विद्ल, विन्ति और विद्यति ये चार विद् धातुएँ क्रमशः ज्ञान, लाभ, विचार और सद्भाव अर्थको कहती हैं। यहाँ चेतनार्थक विद् धातु से चुरादिण्यन्त प्रत्यय करके वेध शब्द बना है। अनिष्ट फल उत्पन्न करनेके कारण वह अप्रशस्त है, अतः असदूध कहा जाता है।
६१४-१५. प्रधान होनेसे दुःखका प्रहण सर्वप्रथम किया है, शेष शोक आदि इसीके विकल्प हैं। शोकादिका ग्रहण दुःखके विकल्पोंके उपलक्षणरूप है, अतः अन्य विकल्पोंका भी संग्रह हो जाता है। अतः अशुभप्रयोग, परपरिवाद, पैशुन्यपूर्वक अनुकम्पाभाव, परपरिताप, अंगोपांगच्छेद, भेद, ताडन, त्रासन, तर्जन, भर्त्सन, तक्षण, विशंसन, बन्धन, रोधन, मर्दन, दमन, वाहन, विहेडन, हेपण, शरीरको रूखा कर देना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, संक्लेशप्रादर्भावन, जीवनको योंही बरबाद करना, निर्दयता, हिंसा, महाआरम्भ, महापरिग्रह, विश्वासघात, कुटिलता, पापकर्मजीवित्व, अनर्थदण्ड, विषमिश्रण, बाण जाल पाश रस्सी पिंजरा यन्त्र आदि हिंसाके साधनोंका उत्पादन, जबरदस्ती शस्त्र देना और दुःखादि पापमिश्रित भाव आदि भी गृहीत हो जाते हैं । ये आत्मा पर और उभयमें रहनेवाले आसातावेदनीयके आस्रवके कारण
६१६-२१. प्रश्न-यदि दुःखके कारणोंसे असातावेदनीयका आस्रव होता है तो नग्न रहना केशलुंचन और अनशन आदि तपोंका उपदेश भी दुःखके कारणोंका उपदेश हुआ, अतः तीर्थंकरोंको उसका उपदेश नहीं करना चाहिए ?
उत्तर-यह प्रश्न ही नहीं हो सकता; यतः जैन तो प्रश्न कर नहीं सकते क्योंकि स्वतीर्थंकरोंके उपदेशका व्याघात हो जाता है । बौद्धोंके मतमें जब सभी पदार्थ दुःख शून्य और अनात्मक रूप हैं तब हिंसादिकी तरह दानादिमें भी दुःखहेतुता ही रहेगी और इसलिए इनका उपदेश भी अकुशलका ही उपदेश कहा जायगा। इसी तरह अन्य मतवादियोंको भी यम नियम परिपालन, विविध वेष, अनुष्ठान, दुश्चर उपवास, ब्रह्मचर्यवास आदिका दुःखहेतु होनेसे अनुष्ठान नहीं करना चाहिए और न उपदेश देना चाहिए; क्योंकि सभी वादी हिंसा आदिको दुःखहेतु होनेसे पापास्रवका कारण मानते ही हैं । सत्य बात तो यह है कि-क्रोधादिके आवेशके कारण द्वेषपूर्वक होनेवाले स्व पर और उभयके दुःख आदि पापास्रवके हेतु होते है न कि स्वच्छा से आत्मशुद्धथर्थ किये जानेवाले तप आदि । जैसे अनिष्टद्रव्यके सम्पर्कसे द्वेषपूर्वक दुःख उत्पन्न होता है उस तरह बाह्य और अभ्यन्तर तपकी प्रवृत्तिमें धर्मध्यानपरिणत मुनिके अनशन केशलुंचन आदि करने या कराने में द्वेषकी सम्भावना नहीं है अतः असाताका बन्ध नहीं होता। जिस प्रकार यति अहिंसा आदि करने और करानेमें प्रसन्न होता है उसी तरह उपवास आदि करने
और करानेमें उसे प्रसन्नता ही होती है। अतः अनशन आदि तप दुःखरूप नहीं हैं। जब मुनियोंको किसी भी कारणसे कभी भी क्रोधादिके उत्पन्न होनेपर उसके परिमार्जनके लिए प्रायश्चित्त करना पड़ता है तब यतिको अनशन आदि तपविधिमें क्रोधादि परिणामोंकी सम्भावना ही नहीं की जा सकती, जिससे असाताका आस्रव माना जाय । जैसे वैद्य करुणाबुद्धिसे रोगीके