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छठाँ अध्याय
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_आत्मस्थ परस्थ और उभयमें होनेवाले दुःख शोक आदि असातावेदनीयके आस्रवके कारण हैं।
६१-८. विरोधी पदार्थोंका मिलना, इष्टका वियोग, अनिष्टसंयोग और निष्ठुर वचन आदि बाह्य कारणों की अपेक्षासे तथा असाता वेदनीयके उदय से होनेवाला पीडालक्षण परिणाम दुःख है । अनुग्रह करनेवाले बन्धु आदिसे विच्छेद हो जानेपर उसका बार-बार विचार करके जो चिन्ता, खेद और विकलता आदि मोहकर्मविशेष-शोक के उदय से होते हैं वे शोक हैं। परिभवकारी कठोरवचन सुनने आदिसे कलुष चित्तवाले व्यक्ति के जो भीतर-ही-भीतर तीव्र जलन या अनुशयपरिणाम होते हैं वे ताप हैं । परितापके कारण अश्रुपात अंगविकार - माथा फोड़ना, छाती कूटना आदि पूर्वक जो रोना है वह आक्रन्दन है । आयु, इन्द्रिय, बल और प्राण आदिका विघात करना वध है । अतिसंक्लेशपूर्वक ऐसा रोना-पीटना जिसे सुनकर स्वयं अपने तथा दूसरेको दया आ जाय, परिदेवन है । यद्यपि ये सभी दुख:जातीय हैं; क्योंकि दुःखके ही असंख्यात भेद होते हैं, फिर भी यहाँ कुछ मुख्य-मुख्य भेदोंका निर्देश कर दिया है। जैसे कि गौअसंख्य प्रकारकी होती हैं और केवल गौ कहने से सबका ज्ञान नहीं हो पाता अतः खण्डी मुण्डी शाबलेय आदि कुछ विशेष दिखा दिये जाते हैं । अथवा, जैसे मृत्पिंड घट कपाल आदि मूर्त्तिमान् रूपीद्रव्यकी दृष्टिसे एक होकर भी प्रतिनियत आकार आदि पर्यायार्थिक दृष्टिसे भिन्न हैं उसी तरह अप्रीतिसामान्यकी दृष्टिसे दुःखादिमें एकत्व होनेपर भी विभिन्न कारणों से उत्पन्न और अभिव्यक्त पर्यायों की दृष्टिसे वे जुदा-जुदा हैं।
१९. जिस समय पर्याय और पर्यायीकी अभेद विवक्षा होती है उस समय गरमलोह - पिण्डकी तरह तद्रूपसे परिणमन करनेके कारण आत्मा ही दुःखयति-दुःख आदिरूप होती है, अतः दुःखादि शब्दं कर्तृसाधनमें निष्पन्न होते हैं और जब पर्याय और पर्यायीको भेद होती है तब दुःखादि शब्द 'दुःख हो जिसके द्वारा या जिसमें' अथवा 'दुःखनमात्र दुःख' इस प्रकार करणसाधन और भावसाधन होते हैं ।
१०. सर्वथा एकान्त पक्षमें दुःख आदिकी कर्ता आदि साधनों में व्युत्पति नहीं बन सकती; क्योंकि इसमें दूसरे पक्षका संग्रह नहीं हो पाता । यदि पर्यायमात्र ही माना जाय और आत्मद्रव्यकी सत्ता न मानी जाय तो विज्ञान आदिमें 'करण' व्यवहार ही नहीं हो सकता; क्योंकि कोई कर्ता ही नहीं है । स्वातन्त्र्यशक्तिविशिष्ट कर्ताकी अपेक्षा ही शेष कर्म करण आदि कारक बनते हैं । कर्ताके अभाव में उनका भी अभाव हो जायगा । कर्तृसाधनता भी नहीं बनती; क्योंकि यहाँ करण आदि सहकारियोंकी अपेक्षा नहीं है । विज्ञान आदि जब युगपत् उत्पन्न होते हैं तो दायें बायें सींगकी तरह परस्पर सहकारिभाव नहीं बन सकता । अतीत और अनागत चूँकि असत् हैं, अतः उनका भी वर्तमानके प्रति सहकारिभाव नहीं हो सकता । जब विज्ञान आदि क्षणिक हैं तो पूर्वानुभूतकी स्मृति आदि नहीं होंगी, और तब पूर्व विनष्ट अर्थके विचारसे होनेवाले शोक आदि कैसे होंगे ? क्षणिकवादमें स्मृति आदि तो हो ही नहीं सकते । सन्तान अवस्तु है अतः उसकी अपेक्षा भी स्मरणादिकी कल्पना नहीं जमती | भाववान्के बिना भावसाधनकी बात करना भी निरर्थक ही है ।
यदि द्रव्यमात्र ही स्वीकार किया जाता है, उसमें क्रिया या गुण आदि परिणमन नहीं होते, वह सर्वथा निर्गुण और निष्क्रिय है तो सुख दुःख आदि पर्यायोंके प्रति कर्ता कैसे हो सकता है ? इसी तरह अचेतन प्रधान भी दुःख आदि पर्यायोंका कर्ता नहीं हो सकता; क्योंकि घटादि अचेतनोंमें दुःख आदि नहीं देखे जाते । यदि अचेतनमें भी सुख दुःख आदि माने जायँ तो वेतन और अचेतनमें कुछ अन्तर ही नहीं रहेगा । निष्क्रिय द्रव्यके अधर्मनिमित्तक दुःख
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