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५।३१-३२] पाँचवाँ अध्याय
६९९ और व्यय पृथक मिलते और सर्वथा अभेद पझमें एकलक्षण होनेसे एकका अभाव होने पर शेषके अभावका भी प्रसंग आता।
१०. इस प्रकारकी शंकाओंमें स्ववचन विरोध भी है। आप अपने पक्षकी सिद्धिके लिए जिस हेतुका प्रयोग कर रहे हैं वह साधकत्वसे यदि सर्वथा अभिन्न है तो स्वपक्षकी तरह परपक्षका भी साधक ही होगा अथवा परपक्षकी तरह स्वपक्षका भी दूपक होगा। इस तरह स्ववचन विरोध दूपण आता है ।
११. उत्पाद-व्यय प्रौव्यम्प पर्याय तथा पर्यायी द्रव्यमें कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद है, अतः सर्वथा भेद पक्षभावी दाप कि-'भिन्न उत्पादादि ही सत्ता कहे जायेंगे, अतः द्रव्यका अस्तित्व नहीं रहेगा, और द्रव्यके अभावमें निराधार उत्पादादिका भी अभाव हो जायगा', तथा सर्वथा अभद पक्षभावी दोप कि-'लक्ष्य और लक्षणमें एकत्व हानेसे लक्ष्यलक्षणभाव नहीं वनंगा' नहीं आ सकते । जैसे जाति कुल रूप आदिसे अन्वयधर्मी मनुष्यके अनेक सम्बन्धियोंकी दृष्टिसे पिता-पुत्र-भ्राता-भानजा आदि परस्पर विलक्षण धर्म होनेपर भी पुरुपमें भेद नहीं होता और न पुरुपके अभिन्न होने पर भी उन धौम अभेद होता है उसी तरह द्रव्यसे वाह्य आभ्यन्तर कारणों से उत्पन्न होनेके कारण पर्यायें कथञ्चित् भिन्न हैं और द्रव्यदृष्टिसे अवस्थान होनेसे कथञ्चित अभिन्न हैं, अतः न तो असत्त्व है और न लक्ष्यलक्षणभावका अभाव ही है। अतः उत्पादादि तीनकी ऐक्यवृत्ति ही सत्ता है और वही द्रव्य है।
जैसे अन्वय द्रव्यका आत्मभूत धर्म है उसी तरह पर्यायें भी । अतः पर्यायकी निवृत्तिकी तरह द्रव्यकी भी निवृत्ति यदि मानी जाती है तो शून्यता हो जायगी।' यह आशंका तब ठीक होती जब पिण्ड घट कपालादि पर्यायोंकी तरह रूपित्य द्रव्यत्व अजीवत्व अचेतनत्व आदि द्रव्यांश भी कादाचित्क हात । व्यय और उत्पाद होने पर भी द्रव्यको तो नित्य ही माना गया है।
तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥३१॥ तद्भावसे च्युत न हानेको नित्य कहते हैं।
६१-२. 'यह वही है' यह प्रत्यभिज्ञान निर्विपय और निहतुक नहीं है। इसमें जो कारण होता है उसे 'तद्भाव' कहते हैं । जिस रूपसे वस्तुको पहिले देखा था उसी रूपसे पुनः दृष्ट होने पर तदेवेदम्' यह प्रत्यभिज्ञान होता है । पूर्वका अत्यन्त निरोध और उत्तरका सर्वथा नूतन उत्पादन माननेपर स्मरण और स्मरणाधीन समस्त लोकव्यवहार समाप्त हो जायेंगे। 'जो नष्ट होता है वही नष्ट नहीं होता, जो उत्पन्न होता है वही उत्पन्न नहीं होता' यह बात परस्पर विरोधी मालूम होती है, पर वस्तुतः विरोध नहीं है क्योंकि जिस दृष्टिसे नित्य कहते हैं यदि उसी दृष्टिसे अनित्य कहते तो विरोध होता जैसे कि एक ही अपेक्षा किसी पुरुषको पिता और पुत्र कहनेमें । पर यहाँ द्रव्य दृष्टिसे नित्य और पर्यायहष्टिसे अनित्य कहा जाता है, अतः विरोध नहीं है । दोनों नयोंकी दृष्टि से दोनों धर्म बन जाते हैं।
अर्पितानर्पितसिद्धे ॥३२॥ गौण और मुख्य विवक्षासे एक ही वस्तुमें नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म सिद्ध हैं।
१-४. प्रयोजनवश अनेकात्मक वस्तु के जिस धर्मकी विवक्षा होती है, या विवक्षित जिस धर्मको प्रधानता मिलती है उसे 'अर्पित' कहते हैं। जिन धर्मोंकी विद्यमान रहनेपर भी विवक्षा नहीं होती उन्हें 'अनर्पित' कहते हैं। अनर्पित अर्थात गौण । जब मृत्पिड 'रूपी द्रव्य' के रूपमें अर्पितविवक्षित होता है तब वह नित्य है क्योंकि कभी भी वह रूपित्व या द्रव्यत्वको नहीं छोड़ता। जब वही अनेकधर्मात्मक पदार्थ रूपित्व और द्रव्यत्वको गौण कर केवल 'मृत्पिड' रूप पर्यायसे विवक्षित होता है तो वह 'अनित्य' है क्योंकि पिंड पर्याय अनित्य है। यदि केवल द्रव्यार्थिक