________________
तस्वार्थवार्तिक- हिन्दी-सार
सद्द्रव्पलक्षणम् ॥२९॥
जो सत् है वह द्रव्य है ।
'तो सत्का लक्षण क्या है' इस प्रश्नका उत्तर यह है कि जो इन्द्रियग्राह्य या अतीन्द्रिय पदार्थ बाह्य और आन्तर निमित्तकी अपेक्षा उत्पाद व्यय और धौव्यको प्राप्त होता है वह 'सत्' है । यहाँ 'वेदितव्यम्' इस पदका अध्याहार कर लेना चाहिए ।
धर्मादिको 'सत्' होनेसे द्रव्य समझ लिया था, अतः बताइए कि 'सत्' क्या है ? इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिए यह सूत्र बनाया है।
६९८
[ ५१२९-३०
उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् ॥ ३० ॥
अथवा, यदि उपकार करनेके कारण धर्मादि द्रव्य 'सत्' हैं तो जब ये उपकार नहीं करते तब इन्हें 'असत्' कहना चाहिए ?' इस शंकाके समाधानार्थ कहा है कि - उपकारविशेष न होनेपर भी 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तत्व' इस सामान्य द्रव्यलक्षणके रहनेसे 'सत्' होंगे ही।
९१-३. चेतन या अचेतन द्रव्यका स्वजातिको न छोड़ते हुए जो पर्यायान्तरकी प्राप्तिउत्पादन है वह उत्पाद है, जैसे कि मृत्पिंडमें घट पर्याय । इसी तरह पूर्व पर्याय के विनाशको व्यय कहते हैं, जैसे कि घड़ेकी उत्पत्ति होनेपर पिंडाकारका नाश होता है । अनादि पारिणामिक स्वभावसे व्यय और उत्पाद नहीं होते किन्तु द्रव्य स्थित रहता है, ध्रुव बना रहता है, जैसे कि पिण्ड और घट दोनों अवस्थाओं में मृद्रूपताका अन्वय है ।
९४-७. प्रश्न – युक्त शब्दका प्रयोग भिन्न पदार्थ से किसी अन्य पदार्थका संयोग होने पर होता है जैसे कि दण्डके संयोगसे 'दंडी' प्रयोग । उत्तर - यहाँ युजि धातुके अर्थ में सत्ताका अर्थ समाया हुआ है। सभी धातुएँ भावत्राची हैं । भाव अर्थात् सत्ताक्रिया । इसी सामान्य भावसत्ताको वे वे विशेष धातुएँ स्वार्थ से विशिष्ट करके विषय करती हैं । चाहे 'उत्पादव्ययप्रौव्ययुक्तं सत्' कह लीजिए चाहे 'उत्पादव्ययध्रौव्यं सत्' कह लीजिए बात एक ही है । सत्तार्थक माननेपर भी 'ए' आदि धातुओंके वृद्धि आदि विशेष अर्थ बन ही जाते हैं क्योंकि असत् खरविषाण आदिके वृद्धि आदि तो होती नहीं । 'ऐसी स्थिति में 'उत्पादव्ययधौव्ययवत्' यह प्रयोग उचित नहीं है क्योंकि इसमें भी दूषण और परिहार समान हैं। जैसे 'देवदत्त और गौ भिन्न हैं, तब 'गोमान् ' यह व्यवहार होता है वैसे उत्पाद व्यय धौव्यसे द्रव्य भिन्न नहीं है, अतः मत्वर्थीय नहीं हो सकता' यह दूषण बना रहता है क्योंकि अभिन्न में भी मत्वर्थीय प्रत्यय होता है जैसे कि 'आत्मवान् आत्मा, सारवान् स्तम्भः' आदिमें । अथवा, युक्त शब्दका अर्थ तादात्म्य है, अर्थात् सत् उत्पादव्ययधौव्यात्मक होता है । अथवा, उत्पाद आदि पर्यायोंसे पर्यायी द्रव्य कथञ्चित् भिन्न होता है अतः योग अर्थ में भी 'युक्त' शब्दका प्रयोग किया जा सकता है । यदि सर्वथा भेद माना जायगा तो दोनोंका अभाव हो जायगा ।
१८. 'सत्' शब्द के अनेक अर्थ हैं- जैसे 'सत्पुरुष' में प्रशंसा 'सत्कार' में आदर 'सद्भूत' में अस्तित्व 'प्रव्रजितः सन्' में प्रज्ञायमान आदि । यहाँ 'सत्' का अर्थ अस्तित्व है ।
१९. प्रश्न - व्यय और उत्पाद चूँकि द्रव्यसे अभिन्न होते हैं अतः द्रव्य ध्रुव नहीं रह सकता ? उत्तर-व्यय और उत्पाद से भिन्न होनेके कारण द्रव्यको ध्रुव नहीं कहा जाता किन्तु द्रव्यरूपसे अवस्थान होनेके कारण । यदि व्यय और उत्पादसे भिन्न होनेके कारण द्रव्यको ध्रुव कहा जाता है तो द्रव्यसे भिन्न होनेके कारण व्यय और उत्पाद में भी धौव्य आना चाहिए । शंकाकारने हमारा अभिप्राय नहीं समझा । हम द्रव्यसे व्यय और उत्पादको सर्वथा अभिन्न नहीं कहते, यदि कहते तो धौव्यका लोप हो ही जाता, किन्तु कथञ्चित् । व्यय और उत्पादके समय भी द्रव्य स्थिर रहता है अतः दोनों में भेद है और द्रव्यजातिका परित्याग दोनों नहीं करते उसी द्रव्यके ये होते हैं अतः अभेद है । यदि सर्वथा भेद होता तो द्रव्यको छोड़कर उत्पाद