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72/श्री दान-प्रदीप
भाई के घड़े में से कागज निकले और चतुर्थ भाई के घड़े में से स्वर्ण-मणियों का ढेर निकला। तीनों बड़े भाई यह सब देखकर अत्यन्त खेद को प्राप्त हुए । चौथा छोटा भाई अपने निधान को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। मनुष्यों की बुद्धि प्रायः बाहरी रूप को देखकर उसके तथ्य का निर्णय कर लेती है। अत्यन्त दुःखित होते हुए तीनों ज्येष्ठ भाइयों ने कहा-“सभी समान रूप से पुत्र होने के बाद भी हमारे पिता ने हमारे साथ भेदभाव किया है। हमारे घड़ों में केशादि तुच्छ वस्तुएँ रखीं और लघु भाई के घड़े में स्वर्ण-मुक्तादि रखे। इससे तो यही सिद्ध होता है कि यह पिता को सबसे ज्यादा प्यारा था। अरे! लघु पुत्र पर प्रेम के कारण मलिन हृदय से युक्त उन्होंने हम सभी को कैसे ठगा है! रत्नबुद्धि से कांच की तरह और स्वर्णबुद्धि से पीतल की तरह भ्रान्ति को प्राप्त हमने गुरुबुद्धि से उनकी व्यर्थ ही सेवा की। पर उस वृद्ध के द्वारा की हुई व्यवस्था अब हमे स्वीकार नहीं है, क्योंकि किसी समझदार मध्यस्थ पुरुष की वाणी ही प्रमाणभूत मानी जाती है। अतः हमें भी लघु भाई के कलश में से अपना-अपना हिस्सा मिलना चाहिए और हमारे कलशों में से उस छोटे भाई को अपना हिस्सा ग्रहण करना चाहिए।"
यह सुनकर छोटे भाई ने कहा-"तुमलोग भाग्यहीनों में शिरोमणि हो, क्योंकि तुम्हारे निधान इस रूप में बदल गये हैं। हमारे पिता तो सर्वलोक के लिए हितकारी थे। उन्होंने कभी दूसरे को भी धोखा नहीं दिया, तो हमें क्या धोखा देंगे? पिताश्री की निन्दा करके क्यों अपनी आत्मा को मलिन करते हो? गुरुजनों की निन्दा दोनों लोकों के लिए दुःखकारी है।
और तुमलोग सुन लो कि मैं अपने भाग का थोड़ा भी स्वर्णादि तुमलोगों को नहीं देनेवाला हूं। तुमलोग भी पिताश्री द्वारा प्रदत्त इस धन को लेने का जरा भी प्रयास मत करना। अन्य द्वारा कृत व्यवस्था अन्यथा नहीं हो सकती, तो हमारे परम हितैषी पिताश्री द्वारा कृत यह व्यवस्था अन्यथा कैसे हो सकती है?"
इस प्रकार विरुद्ध मानसयुक्त वे भाई परस्पर कलह करने लगे। इसी कारण से सत्पुरुषों ने द्रव्य को अनर्थ का मूल कहा है। उनके कलह को रोकने के लिए उनके स्वजन बुद्धिमान होने पर भी मानो मूढ़ के समान हो गये। गुप्त अर्थ में कौन मूढ़ नहीं होता?
उसके बाद विवाद अत्यधिक बढ़ जाने से वे लोग राजसभा में गये। राजा को प्रणाम करने के बाद उन्होंने सारा वृत्तान्त कहा। सुनकर विस्मित होते हुए राजा ने उनका निर्णय करने के लिए मतिसार आदि मन्त्रियों को आज्ञा प्रदान की। सभी मंत्री अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार उनके समाधान के लिए चिरकाल तक विचार-विमर्श करने के उपरान्त किसी भी नतीजे तक नहीं पहुंच पाये। यह ज्ञातकर राजा अत्यन्त चिन्तातुर हुआ, क्योंकि यह राजा