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________________ 35/ श्री दान-प्रदीप में व्यापार कल्पवृक्ष के समान है। फिर प्राप्त लाभ के द्वारा उसने अपने मित्रों को उत्तम आहार करवाया और मूल द्रव्य देकर अपनी मुद्रिका भी छुड़वायी। ___ वहां से आगे चलते हुए अब वे लोग काम्पिल्य नामक नगर में आये। अब भोजन करवाने की बारी मंत्री-पुत्र की थी। मंत्रीपुत्र राजमार्ग पर आया। वहां उसने एक पटह-उद्घोषणा सुनी। तब उसने वहां किसी व्यक्ति से पूछा-"यह पटह की आवाज किसलिए है?" __उस व्यक्ति ने बताया-"इस नगर में सार्थपति नामक महाधनिक रहता है। एक मूर्त्तिमान दम्भ के समान किंसी धूर्त ने आज उससे कहा है कि मैंने तुम्हारे पास पूर्व में एक लाख रूपये थापण के रूप में रखे थे, वे मुझे वापस लौटाओ। श्रेष्ठी ने कहा कि इस बात का क्या साक्ष्य है? तब उसने कहा कि यह धरोहर रखने में मेरा साक्षी परमेश्वर है। इस प्रकार परस्पर विवाद करते हुए वे दोनों राजसभा में आये। राजा ने मंत्री को निर्णय करने की आज्ञा दी। मंत्री ने अत्यधिक प्रयत्न किया, पर इस बात का कोई निर्णय न हो सका। बुद्धिमान होने पर भी क्या कोई मनुष्य कभी किसी कार्य में मूढ़ नहीं बनता? उसके बाद राजा ने मंत्री पर कुपित होते हुए यह पटह बजवाया कि जो इस विवाद को खत्म करेगा, उसे मैं अपने मंत्रियों के पास से लाख रूपये दिलवाऊँगा।" यह सुनकर उस विशाल बुद्धियुक्त मंत्रीपुत्र ने पटह का स्पर्श किया। तब राजा ने उस मंत्रीपुत्र, धूर्त, श्रेष्ठी व अन्य विशिष्ट नगरजनों को राजसभा में बुलवाया। राजा ने मंत्रीपुत्र को निर्णय करने के लिए कहा। तब मंत्रीपुत्र ने कहा-“हे भद्र! मैंने आज तुझको बहुत समय के पश्चात् देखा है। तुम्हें याद तो है ना, कि मैंने तेरे पास चार लाख रूपये धरोहर के रूप में रखे थे, जिसका ईश्वर साक्षी है? अतः अब तुम मुझे मेरे रूपये वापस करो।" यह सुनकर उस धूर्त का मुख श्याम हो गया। वह एक शब्द भी नहीं बोल पाया। तब राजा ने क्रोध से उसका तिरस्कार करके उसे नगर से बाहर निकलवा दिया। दम्भयुक्त कार्य कभी शुभ हो ही नहीं सकता। फिर राजा की आज्ञा से सभी मंत्रियों ने उस मंत्रीपुत्र को एक-एक लाख रूपये दिये। बुद्धि किस-किस अर्थ को नहीं साधती? उस धन के द्वारा मंत्रीपुत्र ने अपने मित्रों की आवभगत की। उसके बल के द्वारा वे चारों विषम अटवी को भी पार कर गये। सायंकाल होते-होते वे किसी ग्राम की सीमा के पास पहुंचे। वहां किसी वटवृक्ष के नीचे मार्ग के श्रम को दूर करने के लिए सोने की इच्छा से रुक गये। जागृत को किसी बात का भय नहीं होता-ऐसा विचार करके उन्होंने बारी-बारी जागने का निर्णय किया। प्रथम प्रहर में राजपुत्र जागृत रहा। उस समय आकाश में बार-बार यह ध्वनि होने लगी-"मैं पडूं।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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