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________________ 34 / श्री दान- प्रदीप छेओ भेओ वसणं, आयासकिलेसभयविवागो अ । मरणं धम्मब्मंसो, अरई अत्थाउ सव्वाइं । । 1 । । भावार्थ :- छेद, भेद, व्यसन (कष्ट), प्रयास, क्लेश, भय का विपाक, मरण, धर्मभ्रष्टता और अरति- ये सभी अर्थ से ही उत्पन्न होते हैं । हे सभासदों! इस पर चार मित्रों का दृष्टान्त है, जिसे आप सभी श्रवण करें वसन्तपुर में राजपुत्र, मंत्रीपुत्र, श्रेष्ठीपुत्र व कोतवाल का पुत्र- ये चारों ही बचपन से ही मित्र थे । वे समग्र कलाओं में निष्णात थे । उद्यानादि स्थानों में साथ - साथ ही निरन्तर क्रीड़ा करने जाया करते थे । अनुक्रम से वे चारों शरीर की सुन्दरता को विकसित करनेवाली युवावस्था को प्राप्त हुए । एक बार पृथ्वी पर होनेवाले विविध कौतुकों को देखने की इच्छा से उन्होंने परस्पर विचार करके देशान्तर की और प्रस्थान किया, क्योंकि कूपमण्डूक कभी भी विवेकवान नहीं होते अर्थात् कुएँ का मेढ़क कुएँ से बाहर नहीं निकलता, तो उसे बाहरी दुनिया का कुछ भी ज्ञान नहीं होता। वह कुएँ जितनी ही दुनिया मानने लगता है। वैसे मनुष्य अगर देशाटन न करे, तो उसे बाहरी दुनिया का विस्तृत ज्ञान और अनुभव नहीं हो पाता । अब राजपुत्र को अन्य तीन मित्रों ने अनुराग व भक्ति के वशीभूत होकर कहा - "हे देव! आप हमारे स्वामी हैं । हम आपके सेवक हैं। अतः हम तीनों बारी-बारी से अपनी-अपनी कलाओं के माध्यम से वित्तोपार्जन करके भोजन की व्यवस्था करेंगे। इस विषय में आप बिल्कुल निश्चिन्त रहें । सेवकों को स्वामी का रक्षण करना ही चाहिए, क्योंकि सेवक स्वामी के आधीन ही होते हैं। अगर तुम्ब अर्थात् गाड़ी के धुरी में पहिए के अवयव को धारण करनेवाला यन्त्र जीर्ण हो जाय, तो पहिए के आरे स्थिर नहीं रह सकते।" इस प्रकार मंत्रणा करने के बाद वे चारों पहले दिन सायंकाल होने पर किसी ग्राम में पहुँचे। उस समय उस ग्राम में चोरों ने हमला किया। उस समय रक्षण करने में चतुर आरक्षक के पुत्र ने चोरों को बाणों की वृष्टि के द्वारा इस तरह भगाया जैसे कोई सिंह मृगसमूह को भगा देता है। उसका पराक्रम देखकर ग्रामवासियों ने उन्हें रात्रि को वहीं रखा और सवेरे उन्हे सम्मानपूर्वक भोजन करवाया। कला का मान कहां नहीं होता ? उसके बाद आगे चलते हुए वे चारों क्षेमपुर नामक नगर में आये। तब भोजन की व्यवस्था करने के लिए श्रेष्ठीपुत्र नगर के भीतर गया। उसने अपनी मुद्रिका ( अंगूठी) किसी श्रेष्ठी के पास गिरवी रखकर धन लेकर व्यापार में कुशल उसने वहां व्यापार शुरु किया । डेढ़ प्रहर तक व्यापार करते हुए उत्साहित उसने 500 स्वर्णमोहरों का उपार्जन किया । वास्तव
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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