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305 / श्री दान- प्रदीप
कुब्ज उत्तर दिया- "हे भूमीन्द्र ! यह पुस्तक मुझे सुरेन्द्र ने प्रसन्न होकर दी है। इसके द्वारा मैं सब कुछ जानता हूं।"
यह सुनकर राजा ने वह पुस्तक हाथ में ली, खोली और जैसे ही पढ़ने को उद्यत हुआ, कुब्ज ने कहा- "हे महाराज ! जो मनुष्य दो (माता और पिता) के द्वारा उत्पन्न हुआ हो, वही इस अद्भुत अक्षरों से युक्त पुस्तक को पढ़ सकता है, क्योंकि इन्द्र का ऐसा ही वरदान है। "
राजा ने पुस्तक खोली, तो उसमें एक भी अक्षर दिखायी नहीं दिया । अतः मन ही मन वह लज्जित हुआ और स्वयं को दो से नहीं उत्पन्न हुआ मानने लगा। लोक में मेरी लघुता न हो इस प्रकार विचार करके पास बैठे पुरोहित को आश्चर्यसहित कहने लगा- "अहो ! चतुर ! इस पुस्तक में कैसे दिव्य अक्षरों की पंक्तियाँ हैं ।"
यह सुनकर पुरोहित पास आकर देखने लगा । सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर भी उसे पुस्तक में एक रेखामात्र दिखायी नहीं दी । वह अपने मन में दुःखित होता हुआ राजा की तरह अपने पिता की विपरीतता को मानने लगा। उसने भी विचार किया कि अगर राजा मुझे ऐसा अधम जानेगा, तो क्रोधित होकर मेरा अपमान करेगा। ऐसा विचार करके उसने धूर्तता के साथ कहा—“हे स्वामी! ऐसा एक अक्षर भी अन्य किसी भी पुस्तक में दिखायी नहीं देता ।”
फिर पास बैठे हुए रुद्र मंत्री ने कौतुक से उस पुस्तक को देखा । पर उसे एक अक्षर भी नजर नही आया। वह मन में विचार करने लगा कि निश्चय ही मुझमें कुलीनता नहीं है। अन्यथा राजादि को दिखायी देनेवाले अक्षर मुझे क्यों दिखायी नहीं दे रहे? अथवा तो मैं पापी हूं, अतः मुझमें तो अवश्य ही अकुलीनता होनी चाहिए, क्योंकि मैंने राजपुत्री के और स्वयं के शीलभंग का चिन्तन किया था । कहा है कि - यौवन से अन्धी बनी माताओं ने जो गुप्त कार्य किये हों, उन्हें शील का लोप करनेवाले उनके पुत्र प्रकट कर देते हैं। कहीं राजादि मेरी इस लाघवता को न जान लें, अतः विचार करके मंत्री ने बार-बार उस पुस्तक की प्रशंसा की । इस तरह वहां बैठे सभी व्यक्तियों ने बारी-बारी से उस पुस्तक की मिथ्या प्रशंसा की । यश की इच्छा से कौन मनुष्य असत्य नहीं बोलता?
फिर राजा उस कुब्ज को लेकर समग्र सभाजनों और पुरजनों के साथ चक्रेश्वरी देवी के मन्दिर में गया। वहां मंत्री ने रत्नवती को देखा। उसके विषय में राजा को विज्ञप्ति करने की उसकी इच्छा भी हुई, पर उस कुब्ज के कौतुक को देखने की इच्छा से उसने कुछ भी नहीं कहा। वहां स्थित लोगों ने भी उस पुस्तक को अहंपूर्विका के द्वारा देखना शुरु किया । एक हाथ से दूसरे हाथ में पुस्तक जाने लगी । अन्त में राजा ने वह पुस्तक कुब्ज के हाथ में दे दी और कहा - "हे कुब्ज ! इन तीनों स्त्रियों को शीघ्र ही बुलाओ ।"