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________________ 304/श्री दान-प्रदीप की निश्चलता, धीरता और दक्षतादि गुण यथार्थ रीति से किसकी वाणी के मार्ग में आ सकते हैं? अगर मैं अभी इन्हें बोलाने का उपक्रम करूंगा, तो अभी तो ये नहीं बोलेंगी। अतः अवसर आने पर यथोचित व्यवहार करूंगा।" ऐसा विचार करके वह वहां से निकल गया। इसके बाद इन स्त्रियों का वृत्तान्त राजा के कर्णपुटों तक पहुँचा। विस्मित होते हुए राजा उन तीनों को देखने के लिए शीघ्रता के साथ वहां आया। सामन्तादि के साथ राजा युगादीश को वन्दन करके चक्रेश्वरी देवी के मन्दिर में गया। देवी को नमस्कार करके उन स्त्रियों की स्वरूपलक्ष्मी को देखकर राजा आश्चर्यचकित हो गया। उसने वात्यल्यपूर्वक उन तीनों से पूछा-“हे पुत्रियों! तुम कौन हो? यहां क्यों बैठी हुई हो?" यह सुनकर भी वे तीनों नीचा मुख करके मौन ही रहीं। राजा के बार-बार बोलाने पर भी वे नहीं बोली। तब राजा ने विदूषकों को आज्ञा दी-"इन स्त्रियों को कौतुक भरे वचन सुनाकर इनका मौन तुड़वाओ।" तब विदूषकों ने भी एक से बढ़कर एक विनोदयुक्त कथाएँ कहीं। किसी ने सुनने मात्र से स्त्रियों को उत्सुक बनानेवाली और शृंगाररस से उछलती तरंगोंवाली कथाएँ कहीं। किसी ने आश्चर्यकारी वक्रोक्ति से युक्त कथाएँ सुनाकर सभासदों को इतना हंसाया कि उनके गाल फूलकर लाल हो गये। पर उन तीनों में से किसी एक ने भी अपने नेत्र तक ऊँचे नहीं किये। बोलना तो बहुत दूर की बात थी। उन्हें उस स्थिति में देखकर राजा का आश्चर्य बढ़ता ही जा रहा था। तब राजा ने पूरे नगर में घोषणा करवा दी-"जो पुरुष अपनी कुशलता के द्वारा इन स्त्रियों को बोलायगा, उसे मैं अपनी कुसुमवती कन्या परणाऊँगा।" इस प्रकार की घोषणा सुनकर राजपुत्री को परणने की इच्छा ये किस-किस ने पटह का स्पर्श करने की इच्छा न की होगी? पर उस कार्य में समग्र कलावानों के निष्फल उद्यम को देखकर राधावेध की तरह उस पटह के समीप भी कोई नहीं गया। फिर अत्यन्त बुद्धिमान कुब्ज रूपी कुमार ने अपनी पत्नियों को अपनी पहचान बताने के लिए उत्सुक बनकर उस पटह का स्पर्श किया। अतः मन ही मन आश्चर्यचकित होते हुए राजपुरुष उस कुबड़े को राजसभा में ले गये। उस समय कुबड़े के हाथ में एक पुस्तक थी। उसने सभा में जाकर राजा को प्रणाम किया। राजा ने आसन देकर उसका सन्मान किया और पूछा-“हे कुब्ज! तुम्हारे हाथ में यह कौनसी पुस्तक है? तुम्हें क्या-क्या ज्ञान है?"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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