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274/श्री दान-प्रदीप
देनेवाला नहीं मिला। प्रायः इस विधि को करने का हक स्वजनों को ही होता है। तब महाजनों ने वह विधि करने के लिए धनदत्त को कहा। कार्य करने की आज्ञा देने में सभी उत्सुक मनवाले होते हैं। पंच का वचन मान्य होता है ऐसा विचार करके धनदत्त ने उनका वचन अंगीकार किया। बाकी सभी लोग दूर जाकर एक वृक्ष की छाया में बैठ गये। फिर चिता में शव को सुलाकर धनदत्त उसके वस्त्र हटाने लगा। तब उसने वस्त्रों के छोर पर एक गठडी बंधी हई देखी। उसने गठड़ी को खोलकर देखा, तो उसमें मूर्तिमान पुण्य समूह के समान दैदीप्यमान पाँच मणियाँ थीं। उन्हें देखकर उसने विचार किया कि यह पराया धन लेना मेरे लिए सर्वथा प्रकार से उचित नहीं है, क्योंकि परद्रव्य को ग्रहण करना दोनों लोक में हितकारी नहीं है। इस प्रकार विचार करके तत्त्वार्थ के ज्ञाता धनदत्त ने उसका समस्त मरण कार्य पूर्ण किया और महाजनों के पास आकर उन्हें रत्न दिखाते हुए कहा-"ये रत्न शव के वस्त्र के छोर में बांधे हुए थे। मैं अदत्त को ग्रहण नहीं करता। अतः ये रत्न आपलोग लेवें।"
उसका यह अद्भुत सन्तोष और प्रामाणिकता देखकर महाजन विस्मित हुए और प्रीतिपूर्वक कहा-“हे वत्स! ये रत्न तुम्ही ग्रहण करो। हम इन रत्नों को तुम्हें प्रदान करते हैं। अतः इन्हें ग्रहण करने में अब तुम्हें अदत्तादान का पाप नहीं लगेगा।"
तब धनदत्त ने कहा-"जिसका स्वामी मरण को प्राप्त हो जाय, उस वस्तु का स्वामी राजा होता है। अतः ये रत्न मुझे देने का आपलोगों को कोई अधिकार नहीं है।"
ऐसा कहकर उसने रत्नों को जबरन महाजनों के हाथ में रख दिया। फिर सभी लोग स्नान करके अपने-अपने स्थानों पर लौट गये। उसके बाद यह वृत्तान्त सुनकर राजा भी अत्यन्त विस्मित और आनन्दित हुआ। उसने स्वयं वे रत्न महाजनों से लेकर धनदत्त को दे दिये। जो मनुष्य शुद्ध अंतःकरणपूर्वक पर का अदत्त धन न लेता हो, उसे अद्भुत संपत्तियाँ चारों तरफ से आकर शीघ्र ही स्वयं वरण करती है। फिर धनदत्त ने उन रत्नों को पाँच लाख स्वर्णमोहरों में बेचकर उस धन का यथायोग्य-प्रमाण में दान, भोग और व्यापारादि में उसका उपभोग किया।
एक बार व्यापार का विस्तार करने के इच्छा से धनदत्त को यह जानने की इच्छा हुई कि उसके दिन चढ़ते हुए हैं या उतरते हुए? उसने विचार किया-"जैसे अल्प भोजन करने से उसका अजीर्ण भी कम होता है और जैसे थोड़ा ही ऊपर से गिरने से वेदना भी अल्प होती है, वैसे ही थोड़ा-2 व्यापार करने से खोट भी थोड़ी ही होती है।"
इस प्रकार का विवेक उत्पन्न होने से उसने एक बकरी खरीदकर वन में चरने के लिए