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273 / श्री दान- प्रदीप
सम्पत्ति का कारण है। तत्त्व और अतत्त्व को प्रकाशित करने में गुरु ही समर्थ है - इस प्रकार जानने के कारण धनदत्त हमेशा मन, वचन और काया की शुद्धि के द्वारा अत्यन्त भक्तिपूर्वक गुरु की आराधना करता था। सभी व्यवहारों में वह महाजनों के साथ मिलकर चलता था। दिन-प्रतिदिन वह यश, मान और माहात्म्य के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होने
लगा ।
कलह समग्र कल्याण - लता का उन्मूलन करने में हाथी के समान है और विपत्ति का स्थान है- यह जानकर वह किसी भी स्थान पर क्लेश नहीं करता था ।
असत्य बोलने से अविश्वास, अप्रीति, लघुता, निन्दादि कौन-कौनसे दोष पुष्ट नहीं होते? ऐसा विचार करके वह कभी भी असत्य वचन नहीं बोलता था ।
चोरी रूपी वृक्ष इस भव में वध, बन्धनादि फल प्रदान करते हैं और परलोक में नरक की वेदना प्रदान करते हैं- ऐसा जानकर वह कदापि अदत्त को ग्रहण नहीं करता था।
परस्त्री का सेवन करनेवाला इस भव और परभव में अनेक आपत्तियाँ प्राप्त करता है - ऐसा जानकर वह परस्त्रियों को दृष्टि के द्वारा देखता भी नहीं था ।
नीति का ज्ञाता वह धनदत्त समझता था कि व्यसन दुःख रूपी वृक्ष का मूल है । अतः शत्रु की तरह दुर्व्यसनों को मानते हुए वह उनसे दूर ही रहता था।
विनयादि गुण ही पुरुषों को शोभित करते हैं। अलंकारों का समूह तो भारभूत ही है। ऐसा मानकर वह विनयादि गुणों का आदर करता था ।
धन का दान करने से यश और मोक्ष रूपी फल की प्राप्ति होती है और भोगने से तो वह मल-मूत्र रूप होता है - ऐसा विचार करके वह न्यायोपार्जित धन का आय के अनुसार दान करता था ।
इस प्रकार निरन्तर सर्व स्थान पर सदाचार का ही आचरण करता था। अतः उसका दर्शन सभी को प्रिय लगता था ।
एक बार नगर में कोई परदेशी वणिक किसी मठ में रोग की पीड़ा से मरण को प्राप्त हुआ। उसका अग्नि-संस्कार करने के लिए धनदत्त और सभी महाजन इकट्ठे हुए। सत्पुरुष सर्वत्र उचित करने में ही तत्पर रहते हैं। वहां सिद्धदत्त को बुलाने पर भी वह नहीं आया । पाँच मनुष्यों के बीच जो न आय, उससे अधिक जड़ - मूर्ख और कोई नहीं हो सकता। फिर अन्य वणिकजन उस शव को लेकर श्मशान में गये। वन के काष्ठों द्वारा उसकी चिता तैयार करवायी । पर उस मरण प्राप्त व्यक्ति की जाति का पता न होने से उसे कोई अग्नि