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201 / श्री दान- प्रदीप
कदाचित् उसका मरण भी हो जाय, अतः अब उसको उसके स्थान पर हमें ले जाना ही होगा ।"
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इस प्रकार उनकी बातचीत का श्रवण करके राजा शीघ्रता के साथ वापस पलंग के पास आकर चादर ओढ़कर सो गया । वे यक्ष भी थोड़ी देर में आये और अपने पायों के स्वरूप को प्राप्त किया। फिर पलंग को उठाकर राजा के महल में पहुँच गये । प्रातः काल होने पर राजा ने आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला रात्रि का समग्र वृत्तान्त मंत्री को बताया । विद्वानों को उत्सुक बनानेवाले उस वृत्तान्त को सुनकर मंत्री आदि सभी सभासदों का हृदय विकस्वर बना। उसके बाद राजा ने उस शिल्पी को बुलवाकर कहा - "तेरी शिल्पविद्या की कुशलता यथार्थ रीति से कहने में कौन समर्थ है, क्योंकि तेरी कला - कुशलता तो विश्वकर्मा को भी मात देती है । "
यह कहकर उसकी प्रशंसा करके राजा ने उसे लाखों मणि, सुवर्ण और आभूषण देकर संतुष्ट किया। फिर वह राजा प्रतिदिन विविध प्रकार के आश्चर्यों से युक्त पृथ्वी को देख-देखकर अपने नेत्रों को कृतार्थ करता था । अष्टापद आदि तीर्थों को हर्षपूर्वक वंदन कर-करके अपने मनुष्य जन्म को सफल मानता था । पलंग पर सुखपूर्वक बैठकर स्वेच्छापूर्वक विमान में बैठे हुए विद्याधर की तरह वह हमेशा आकाश रूपी आँगन में क्रीड़ा करता था । एक बार राजा ने हर्षपूर्वक उस शिल्पी से कहा - " मेरा पलंग पर बैठना शोभा का कारण नहीं है, पर लज्जा का कारण है। तुम्हारे पास बड़ी-बड़ी शिल्पकलाएँ हैं। ऐसी कोई रत्न की जाति नहीं है, जो रोहणाचल पर्वत पर न हो। अतः हे निष्कपट ! पलंग की तरह आकाश में गति करने में समर्थ एक हस्तीरत्न तूं मेरे लिए प्रयत्नपूर्वक बना ।"
यह सुनकर शिल्पकार ने कहा - "हे देव! वैसा दिव्य काष्ठ अरण्य में नहीं दिख रहा है, जिससे दिव्य हाथी बनाया जाय । वैसा काष्ठ तो सद्भाग्य के समूह से ही दिखायी देता है। प्रत्येक वन में कल्पवृक्ष सुलभ नहीं होता ।”
यह सुनकर स्वार्थ में तत्पर राजा ने फिर से कहा - "तुम उस तरह का काष्ठ अन्य अनेक वनों में जाकर खोजकर लाओ। जितना द्रव्य चाहिए, मेरे खजाने से ले लो। सहायता के लिए मेरे सेवकों को भी साथ रखो। अतुल स्वादयुक्त खाद्य, भोज्यादि वस्तुओं से भरे हुए तथा मार्ग में आनन्द प्रदान करनेवाले इन रथों को भी ग्रहण करो।'
इस प्रकार राजा की अत्यन्त कृपा देखकर उस बुद्धिमान ने उनका वचन अंगीकार किया और सर्व सामग्री के साथ वन में गया । सेवकों के समूह - परिवार के साथ वह निरन्तर वनों में अटन करने लगा । पर कल्पवृक्ष के समान वैसा काष्ठ उसे किसी भी स्थान पर नहीं मिला। वन में घूमते-घूमते उसे छः माह व्यतीत हो गये। तब किसी दिन उसने वैसा ही एक