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200/ श्री दान-प्रदीप
संपत्तियों की प्रदाता है।"
इस प्रकार तीसरे पाये के कथनानुसार तीनों पायों ने उसकी बात अंगीकार कर ली।
उनकी परस्पर बात-चीत को सुनकर राजा ने विचार किया-"अहो! इन पायों ने ऐसा युक्तिमय वाद किस प्रकार किया होगा? कैसे इन्होंने धर्म और मोक्ष की मुख्यता स्पष्ट रीति से प्रतिपादित की? धर्म और मोक्ष पर इनका आभ्यन्तर आनंद किस प्रकार से स्फुरित हो रहा था? इन बुद्धिमानों की कुशलता किसके द्वारा प्रशंसनीय न होगी? अहो! मेरा भाग्य जागृत व स्फुरित हुआ है, कि जिससे इन पायों के वाद को सुनकर मेरी बुद्धि भी धर्म में दृढ़ बनी है। और भी, इनकी सहायता से मैं भी शाश्वत जिनेश्वरों को वंदन कर पाऊँगा।"
__ऐसा विचार करके राजा योगी की तरह अंगों का गोपन करके उस पलंग में निश्चल रूप से सोने का नाटक करने लगा। उसके बाद मानो पांखों से युक्त गरुड़ हों, इस प्रकार से वे चारों पाये पांखों को चौड़ा करके एक साथ पलंग सहित आकाश में उड़े। क्षणभर में वैताढ्य पर्वत के ऊपर पहुँच गये। उस पलंग के मंचक को वहीं बाहर छोड़कर वे चारों यक्ष का रूप धारण करके हर्षपूर्वक जिनमन्दिर में चले गये। वहां अरिहन्तों की शाश्वत रत्नप्रतिमाओं के दर्शन करके हर्षपूर्वक उनको वंदन करके कल्पवृक्ष के पुष्पादि के द्वारा उनकी पूजा की। फिर किंकर देवों के द्वारा कोमल स्वरयुक्त किये जानेवाले नृत्य को वे एकटक देखने लगे। उधर राजा भी पलंग से उठ खड़ा हुआ। अपनी कान्ति के द्वारा आकाश को प्रकाशित करनेवाले अद्भुत प्रासाद को देखकर आश्चर्यचकित हो गया। फिर उसके भीतर गुप्त रीति से प्रवेश करके अद्भुत मनोहर प्रतिमाओं को वंदन करके अपने जन्म को सफल मानने लगा। वहां देवों का समूह संगीत में व्यग्र था। अतः वह भी किसी स्थान पर रहकर स्तम्भित शरीर की तरह स्थिर होकर नृत्य देखने लगा। देखते- देखते राजा विचार करने लगा-"ये प्रख्यात कीर्त्तियुक्त यक्ष पुण्यवंतों में अग्रसर हैं, क्योंकि ये हमेशा इन अद्भुत प्रतिमाओं को वंदन करते हैं। अहो! इनकी ऐसी नृत्यकला कहीं और देखने को नहीं मिलती, क्योंकि यह नृत्यकला मनुष्यों के नेत्र रूपी हरिणों को पकड़ने के लिए जाल की तरह शोभित होती है। इसे देखनेवाले सभासद किसके द्वारा प्रशंसित नहीं होंगे? ये तो अनिमेष दृष्टि से सदैव ऐसा उत्तम नृत्य देखते ही हैं।''
इस प्रकार विचार करते हुए राजा नृत्य के सम्मुख दोनों नेत्रों को स्थिर करके देखने लगा और इच्छा करने लगा कि तीन प्रहरवाली यह रात्रि अनेक प्रहरों से युक्त बन जाय । कुछ समय पश्चात् चारों पाये परस्पर कहने लगे-"अब रात्रि ग्रीष्मकाल की नदी के पानी की तरह थोड़ी ही बाकी रही है। अगर कदाचित् पलंग पर सोया हुआ वह मनुष्य उठ जायगा, तो ग्राम के भीतर आये हुए मृग की तरह आकुल-व्याकुल बन जायगा। व्याकुलता के कारण