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________________ आचार्य श्रीरत्नसिंह सूरि कृत अथ धर्माचार्य बहुमान प्रकरणम् (आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि कृत गुजराती से हिन्दी भाषांतर) नमिउं गुरुपयपउमं, धम्मायरियस्स नियमसीसेहि। जह बहुमाणो जुज्जड़, काउमहं तह पयंपेमि ॥१॥ सद्गुरु भगवंत के चरण कमल में नमस्कारकर स्वशिष्यों को धर्माचार्यों का बहुमान (गुरुओं का) जिस रीति से करना चाहिए उसका वर्णन मैं करता हूँ। उसकी प्ररूपणा करता हूँ ।।१।। गुरुणो नाणाइजुया, महणिज्जा सयलभुवणमझंमि। किं पुण नियसीसाणं, आसन्नुवयारहेऊहिं ॥२॥ ज्ञानादि (ज्ञान-दर्शन चारित्र) गुण युक्त सद्गुरु तो सर्व पृथ्वि में माननीय (पूजनीय) है। तो फिर निकटतम उपकारी होने के कारण उनके शिष्यों के लिए क्या पूछना? अर्थात् आसन्नोपकारी होने के नाते (अतिशय) विशेष पूजनीय हैं।।२।। गरुयगुणेहिं सीसो, अहिओ गुरुणो हविज्ज जइ कहवि। तहवि हु आणा सीसे, सीसेहिं तस्स धरियव्वा ॥३॥ गुरु से शिष्य विशिष्ट गुणों से कहीं अधिक भी हो जाय तो भी शिष्यों को गुरु आज्ञा मस्तक पर धारण करनी चाहिए अर्थात बहुमान पूर्वक मान्य करनी चाहिए।।३।। जड़ कुणइ उग्गदंडं, रुसइ लहुणवि विणयभंगमि। चोयइ फरुसगिराए, ताडइ दंडेण जइ कहवि ॥४॥ किंचित् विनय में स्खलना होने पर रोष करें, उग्रदंड करे,कठोर शब्दों से ताड़ना करे एवं उग्रदंड से मारे तो भी शिष्य, गुरु को देव समान पूजे ।।४।। अप्पसुएवि सुहेवी, हवइ मणागं पमायसीलोडवि।। तहवि हु सो सीसेहिं, पूइज्जड़ देवयं व गुरु ॥५॥ गुरु अल्पज्ञानी हो, किंचित् सुखशीलिए हो, किंचित् प्रमादी हो, तो भी शिष्यों द्वारा भगवंत सम पूजे जाते हैं।।५।। सोच्चिय सीसो सीसो, जो नाउं इंगियं गुरुजणस्स। वट्टइ कज्जम्मि सया, सेसो भिच्चो वयणकारी ॥६॥ श्रामण्य नवनीत
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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