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________________ परमार्थ का अंग है, क्योंकि योग्यता-बुद्धि होने से ही काष्ठादि में प्रतिमादि निर्माण की प्रवृत्ति होती है। व्यवहारनय के उच्छेद पर तो तीर्थ का उच्छेद होगा! व्यवहारनय तो तीर्थ रक्षक है, तत्त्व का अंग है, क्योंकि वह प्रव्रज्यादि के प्रदान द्वारा परलोक सम्बंधी प्रवृत्ति का विशोधन करने वाला है, अतएव अनेकान्त की सिद्धि होने से निश्चयनय का अंग होने के कारण तत्त्व का (मोक्ष का) अंग है। अकेला निश्चयनय एकान्त है। ___ अरिहंत भगवान की दोनों नय वाली आज्ञा अथवा प्रस्तुत पंचसूत्र में प्ररूपित यह आज्ञा, कष, छेद और ताप इन तीन प्रकार की शुद्धि के कारण समन्तभद्र है-सर्वथा निर्दोष है। इस आज्ञा को अपुनर्बन्धक (कर्म की उत्कृष्ट स्थिति खपाने वाले और आगे न बांधने वाले) मार्गाभिमुख और मार्ग पतित आदि जीव ही समझ सकते हैं, किन्तु जिनको केवल संसार ही प्रिय है ऐसे भवाभिनन्दी जीव नहीं समझ सकते ।।९।। मूल - एअप्पिअत्तं खलु इत्थ लिंगं, ओचित्तपवित्तिविन्ने संवेगसाहगं निअमा। न एसा अन्नेसिं देआ। लिंगविवज्जयाओ तप्परिण्णा। तयणुग्गहठ्ठयाए आमकुंभोदगनासनाएणं, एसा करुण(णा)त्ति वुच्चड़ा एगंतपरिसुद्धा, अविराहणाफला, तिलोगनाहबहुमाणेणं निस्सेअससाहिग, त्ति पव्वज्जाफलसुत्तं ॥१०॥ ॥ पंचमं पवज्जा-फल सुत्तं समत्त । अर्थः यह आज्ञाप्रियता आदि अर्थात् अरिहन्त भगवान की आज्ञा, आज्ञा का श्रवण-अभ्यासादि प्रिय लगना ही अपुनर्बन्धकादि होने का चिह्न है। आज्ञाप्रियता, उचित प्रवृत्ति के द्वारा जानी जा सकती है और वह अवश्य संवेग की साधक है। भगवान की आज्ञा दूसरों को जो अपुनर्बधक नहीं है, भवाभिनन्दी हैं उन्हें नहीं देनी चाहिए। उनकी पहचान पूर्वोक्त चिह्न के विपर्यास से हो सकती है। उनके अनुग्रह के लिए अर्थात् उनके हित के लिए ही यह आज्ञा उन्हें देना उचित नहीं।जैसेकच्ची मिट्टी के घड़े में डाला हुआ पानी उस घड़े का भी विनाश कर देता है, उसी प्रकार अपात्र को दिया हुआ आगम उसीका अहितकर्ता सिद्ध होता है। अतएव उसे आज्ञा न देना ही उस परकरुणा करना है। यह करुणा उसको अधिक दोषोत्थानरूप अहित से निवारण करने वाली होने से एकान्त शुद्ध है, अविराधना रूप फल देने वाली है और त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर भगवान के बहुमान के कारण उत्पन्न होती है, इसलिए मोक्ष साधक है। जिसे आगम परिणत हुए हैं उस पुरुष को ही ऐसी करुणा होती है, क्योंकि उसी का भगवान पर अत्यन्त बहुमान होता है। इस प्रकार प्रव्रज्या का फल निरूपण करने वाला पांचवा सूत्र समाप्त हुआ।।१०।। ॥ पांचवां प्रव्रज्या-फल सूत्र समाप्त ।। श्रामण्य नवनीत
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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